प्रश्न- यदि बेटे वृद्धावस्थामें सेवा न करें तो क्या करना चाहिये?
उत्तर- बेटोंसे अपनी ममता उठा लेनी चाहिये । यही मानना चाहिये कि ये हमारे बेटे नहीं हैं। कोई भी सेवा न करे तो ऐसी अवस्थामें कुटुम्बियोंसे जो सुख-सुविधा पानेकी आशा होती है, उसीसे दुःख होता है-'आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम्'। अतः उस आशाका ही त्याग कर देना चाहिये और असुविधामें तपकी भावना करनी चाहिये कि 'भगवान् की बड़ी कृपासे हमें स्वतः तप करनेका अवसर मिला है । अगर परिवारवाले हमारी सेवा करने लग जाते तो हम उनकी मोह-ममतामें फँस जाते, पर भगवान् ने कृपा करके हमें फँसने नहीं दिया !'
मनुष्य मोह-ममतामें फँस जाता है- यही उसकी आध्यात्मिक उन्नतिमें बाधा है। उस बाधाको जो हटाते हैं, उनका तो उपकार ही मानना चाहिये कि ये हमें बाधारहित कर रहे हैं, हमारा कल्याण कर रहे हैं, उनकी हमपर बड़ी भारी कृपा है ! जीवनभर सेवा लेते रहनेसे वृद्धावस्थामें असमर्थताके कारण परिवारवालोंसे सेवा लेनेकी इच्छा ज्यादा हो जाती है। अतः मनुष्यको पहलेसे ही सावधान रहना चाहिये कि मैं सेवा लेनेके लिये यहाँ नहीं आया हूँ, मैं तो सबकी सेवा करनेके लिये ही यहाँ आया हूँ; क्योंकि मनुष्य, देवता, ऋषि-मुनि, पितर, पशु-पक्षी, भगवान् आदि सबकी सेवा करनेके लिये ही यह मनुष्य-शरीर है। अतः किसीसे भी सुख-सुविधा नहीं चाहनी चाहिये। अगर हम पहलेसे ही किसीसे सुख-सुविधा, सेवा नहीं चाहेंगे तो वृद्धावस्थामें सेवा न होनेपर भी दुःख नहीं होगा। हाँ, हमारे मनमें सेवा लेनेकी इच्छा न रहनेसे दूसरोंके मनमें हमारी सेवा करनेकी इच्छा जाग्रत् हो जायगी !
हरेक क्षेत्रमें त्यागकी आवश्यकता है। त्यागसे तत्काल शान्ति मिलती है। प्रतिकूल परिस्थिति आने पर भी प्रसन्न रहना बड़ा भारी तप है। अंतःकरण की शुद्धि तप से होती है, सुख-सुविधा से नहीं। सुख-सुविधा चाहने से अंतःकरण अशुद्ध होता है। अतः मनुष्य सुख कभी चाहे ही नहीं, प्रत्युत अपने मन-वाणी-शरीर से दूसरों की सेवा करनी चाहिये।
🚩 स्वामी रामसुखदास जी महाराज 🚩
🚩 पस्तक - 'गृहस्थ में कैसे रहें' 🚩
🚩 गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित 🚩