आत्मज्ञान प्राप्त करने का उचित मार्ग क्या है?
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https://youtu.be/YOok2VPt_pM
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आत्म तत्व साक्षात् अपरोक्ष है, स्वप्रकाश है। आवश्यकता इस बात की है कि अनात्म वस्तुओं के अनुरूप आत्म मान्यता का हम परित्याग करें। श्रीमद्भागवत में मृत्यु की परम्परा पर विजय प्राप्त करने के लिए मुक्ति की परिभाषा दी गई है -
मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति: (श्रीमद्भागवत 2.10.6) अनात्मवस्तुओं के अनुरूप आत्म मान्यता का परित्याग कर देने पर मुक्ति स्वाभाविकी सिद्ध होती है। आत्मा नित्य मुक्त स्वरूप ही है, केवल देह, इन्द्रिय, प्राण, अन्तःकरण के अनुरूप आत्म मान्यता के कारण बाह्य जगत् में अहंता, ममता के कारण इसे बन्धन की प्राप्ति है।
ऐसी स्थिति में
'अन्नमय कोष' जिसको यह 'स्थूल शरीर' कहते हैं,
'प्राणमय कोष' जिसमें कर्मेन्द्रियों के सहित प्राणों का सन्निवेश है,
'मनोमय कोष' जिसमें मन और ज्ञानेन्द्रियों का सन्निवेश है।
'विज्ञानमय कोष' जिसमें बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियों का सन्निवेश है।
'आनन्दमय कोष' - प्रिय, मोद, प्रमोद.. अभीष्ट विषय के सेवन से प्राप्त आह्लाद,
इनको तैत्तिरीय उपनिषद् में अनात्मा मान लिया गया है।
जो दृश्य पदार्थ हैं, वे सब अनात्मा हैं। देह, इन्द्रिय, प्राण, अन्तःकरण के अनुरूप आत्म मान्यता का जब व्यक्ति परित्याग कर देता है तो आत्मतत्त्व आत्मारूप आत्मानुरूप होकर ही शेष रहता है। लेकिन इस विज्ञान का बल हमारे जीवन में अर्जित हो सके इसके लिए कर्मकांड, उपासनाकांड की घाटी पार करने की आवश्यकता है।
कर्माणि चित्त शुद्ध्यर्थं, ऐकाज्ञार्थमुपासना, ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः, ज्ञानादेवतु कैवल्यं….
निष्कामभाव से कर्मयोग का पालन, फिर भगवान् की आराधना-उपासना। कर्मोपासना के फलस्वरूप चित्त शुद्ध और समाहित होता है। जब चित्त शुद्ध और समाहित होता है तब श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु के मार्गदर्शन में व्यक्ति को आत्मा का आत्मानुरूप श्रवण प्राप्त होता है। जब वह अनात्म वस्तुओं के अनुरूप आत्म मान्यता का परित्याग कर आत्मानुरूप ही आत्मस्थिति लाभ कर लेता है तो मुक्त मान लिया जाता है। मुक्त तो है ही, आरोपित बन्धन का निरसन हो जाता है।
मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति: (श्रीमद्भागवत 2.10.6) अनात्मवस्तुओं के अनुरूप आत्म मान्यता का परित्याग कर देने पर मुक्ति स्वाभाविकी सिद्ध होती है। आत्मा नित्य मुक्त स्वरूप ही है, केवल देह, इन्द्रिय, प्राण, अन्तःकरण के अनुरूप आत्म मान्यता के कारण बाह्य जगत् में अहंता, ममता के कारण इसे बन्धन की प्राप्ति है।
ऐसी स्थिति में
'अन्नमय कोष' जिसको यह 'स्थूल शरीर' कहते हैं,
'प्राणमय कोष' जिसमें कर्मेन्द्रियों के सहित प्राणों का सन्निवेश है,
'मनोमय कोष' जिसमें मन और ज्ञानेन्द्रियों का सन्निवेश है।
'विज्ञानमय कोष' जिसमें बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियों का सन्निवेश है।
'आनन्दमय कोष' - प्रिय, मोद, प्रमोद.. अभीष्ट विषय के सेवन से प्राप्त आह्लाद,
इनको तैत्तिरीय उपनिषद् में अनात्मा मान लिया गया है।
जो दृश्य पदार्थ हैं, वे सब अनात्मा हैं। देह, इन्द्रिय, प्राण, अन्तःकरण के अनुरूप आत्म मान्यता का जब व्यक्ति परित्याग कर देता है तो आत्मतत्त्व आत्मारूप आत्मानुरूप होकर ही शेष रहता है। लेकिन इस विज्ञान का बल हमारे जीवन में अर्जित हो सके इसके लिए कर्मकांड, उपासनाकांड की घाटी पार करने की आवश्यकता है।
कर्माणि चित्त शुद्ध्यर्थं, ऐकाज्ञार्थमुपासना, ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः, ज्ञानादेवतु कैवल्यं….
निष्कामभाव से कर्मयोग का पालन, फिर भगवान् की आराधना-उपासना। कर्मोपासना के फलस्वरूप चित्त शुद्ध और समाहित होता है। जब चित्त शुद्ध और समाहित होता है तब श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु के मार्गदर्शन में व्यक्ति को आत्मा का आत्मानुरूप श्रवण प्राप्त होता है। जब वह अनात्म वस्तुओं के अनुरूप आत्म मान्यता का परित्याग कर आत्मानुरूप ही आत्मस्थिति लाभ कर लेता है तो मुक्त मान लिया जाता है। मुक्त तो है ही, आरोपित बन्धन का निरसन हो जाता है।