सत्यज्ञानानन्दघन श्रीरमणीयं
विश्वोत्पत्तिस्थितिलयहेतुस्वविलासम् ॥
पादाम्भोजध्यायकतापत्रयनाशं
श्रीकृष्णाख्यं केवलमीडे परतत्तवम्॥
स्वीयांघ्र्यम्भोजधूलीलवनिरतमन:संघसर्वेप्सितार्थ-
व्रातस्पर्शव्रताढ्यत्रिदिवधरणिभू भूयबिभ्रत्कटाक्ष: ।
भूयाद्भूयो विभूत्यै विधिधरतनुजाराजदुत्संगनाके-
ण्मुख्यामर्त्यालिनम्यस्वपदवनजनी राधिकाप्राणकान्त: ॥
जिस निर्गुण निराकार अखण्ड अपरिच्छिन्न सर्वव्यापी
सर्वान्तर्यामी नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त सच्चिदानन्दघनस्वरूप
'परमात्म-पदार्थके विषयमें भगवती श्रुति स्वयं कहती है-
“यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह"
अर्थात् जिसको प्राप्त न कर सकनेसे वाणी और
मन निराश होकर लौट आते हैं इत्यादि। उसी परमेश्वरकी-
भक्तचित्तानुरोधेन धत्ते नानुकृतीः स्वयम्॥
अद्वैतानन्दरूपो यस्तस्मै भगवते नमः॥
― इस न्यायके अनुसार भक्तोंके उद्धार के लिये
धारण की हुई अनन्तानन्त सगुण मूर्तियोंके अन्दर खास-खास लीलावतारोंमेंसे भी जिस सगुण मूर्त्तिशिरोमणि आनन्दकन्द षोडशकलापूर्ण पूर्णावतार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्ररूपी खास परमात्ममूर्तिने जगत्के कल्याणके लिये अपने जन्मसे लेकर निर्याणपर्यंत अति सुन्दर लीलाओं तथा अति पवित्र उपदेशोंसे बाहर तथा भीतरकी दृष्टिसे जगत् को जो अमूल्य शिक्षण दिया था, उसका हम
किस प्रकारसे, किस वाणीसे, किस लेखनीसे या किस
मनसे वर्णन करें, यह पता नहीं लगता। क्योंकि पूर्ण
परमात्माका जो पूर्णावतार है, उसके विषयमें भी तो वही उपर्युक्त श्रुति ही लागू होती है-
"यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह"
असलमें तो श्रीमद्भागवत, श्रीमन्महाभारत (जिसके
अन्तर्गत श्रीमद्भगवद्गीता भी है) श्रीब्रह्मवैवर्त आदि अनेकानेक ग्रंथों में भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके विषयमें जो वर्णन मिलते हैं और उनके श्रीमुखसे जो उपदेश मिलते हैं उन सबके सम्बन्ध में हम तो प्रतिज्ञापू्वक यही कहा करते हैं और समय-समयपर यही निरूपण भी किया करते हैं कि इन ग्रंथों के प्रत्येक श्लोकका प्रत्येक शब्द ही नहीं, बल्कि प्रत्येक अक्षर सब शास्त्रों की दृष्टिसे और जगत्के सब कार्य-क्षेत्रों के विचारसे अनन्तानन्त प्रकारके बड़े-बड़े तत्तवोंसे भरा हुआ है। फिर भी इनमें हमारे विचारके गोचर न होकर कितने ही ऐसे अर्थ बाकी रह जाते हैं जिनकी गिनती नहीं की जा सकती। तब पूर्णावतारका वर्णन तो कैसे किया जा सकता है? तथापि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के जीवनचरित्र, लीला और उपदेशोंके तत्त्वानुसन्धान से हमें जो तत्त्व प्राप्त हुए हैं उनमेंसे कुछ खास-खास तत्वों का स्थालीपुलाक-न्यायसे अति संक्षिप्त रूप में केवल दिग्दर्शनमात्र कराया जाता है।
पाश्चात्यों तथा पाश्चात्य संस्कृतिप्रेरित भारतीयोंकी
ओर से ऐतिहासिक दृष्टिसे आजकल जो ये प्रश्न उठाये
जाते हैं कि 'भगवान् श्रीकृष्ण ऐतिहासिक पुरुष थे या
नहीं ?' 'इस सम्बन्धमें श्रीमन्महाभारत, श्रीमद्भागवत आदि ग्रंथों में वर्णित घटनाएँ ऐतिहासिक हैं या नहीं ?' 'इनके वर्णनों में जो परस्पर विरोध है उसका परिहार कैसे हो सकता है?' 'कृष्णोपासनासम्प्रदाय कबसे प्रारम्भ हुआ?' इत्यादि; इन प्रश्नोंके उत्तरमें हम तो ऐतिहासिक प्रमाणों तथा प्रणालीद्वारा उन समस्त घटनाओंकी ऐतिहासिकताको हो स्थापित करते और मानते हैं; हम यह भी मानते तथा सिद्ध करते हैं कि श्रीकृष्णोपासना अनादिकालसे प्रचारित सम्प्रदाय है, श्रीमद्भागवत श्रीवेदव्यासजीद्वारा रचित है और इसे श्रीशुकदेवजीने सुनाया था। श्रीमन्महाभारतके श्रीकृष्ण, श्रीमद्भगवत श्रीकृष्ण और ब्रह्मवैवर्त आदि पुराणोंके श्रीकृष्णमें इतिहास, गुण, कर्म, उपदेश आदि किसी भी दृष्टिसे भी ऐसा कोई भी भेद नहीं है जैसा पाश्चात्य (Orientalist) सजन तथा उनके अनुयायी भारतीय Research Scholar महोदय बतलाते हैं। इस लेखमें उन प्रमाणोंके विवरणमें उतरनेकी आवश्यकता नहीं है। इसलिये इस विषयको यहीं छोड़कर अब हम अपने विषयपर आते हैं। हमारे इस लेखका उद्देश्य केवल भगवान् श्रीकृष्णचद्रके
जीवनचरित्र तथा उपदेशों से प्राप्त होनेवाली अमूल्य
शिक्षाका एक स्थूल सूचीपत्र बनाना ही है। परन्तु इससे
पहले हमारे सामने उपोद्घातरूपसे अवतारवादका एक
बड़ा प्रश्न उपस्थित होता है, जिसके उत्तरमें हम समस्त
शास्त्रोंके सिद्धान्त का संक्षेपसे यही सारांश बतावेंगे कि निर्णुण परमात्माका सगुण-रूपोंसे अवतार ग्रहण करना केवल पुराणोंसे नहीं बल्कि श्रीमद्भगवद्गीता के-
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप॥
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ॥
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥
― इत्यादि श्लोकों से और नारयणोपनिषत्, नृसिंहतापिनी, सीतोपनिषत्, रामरहस्योपनिषत्, रामतापिनी, वासुदेवोपनिषत्, गोपालतापिनी, कृष्णोपनिषत् आदि अनेक उपनिषदोंसे भी सिद्ध है। यही नहीं, वेदकी पूर्वसंहिताके अन्तर्गत पुरुषसूक्तके-- 'अजायमानो बहुधा विजायते' इस मन्त्र से भी निर्विवाद सिद्ध है।
अतः हम अवतारवादके समर्थनके लिये बहुत
प्रमाण देनेमें समय न लगाकर श्रीमद्भगवद्गीता के एकादश (विश्वरूपदर्शनयोग) अध्यायके प्रसंग और द्वादश (भक्तियोग) अध्यायके बताये हुए सिद्धान्तकी ओर जिज्ञासुओंकी दृष्टि आकर्षित करना ही पर्याप्त समझते हैं।
एकादशाध्यायका प्रसंग यह है कि दशमाध्यायमें
भगवान् के द्वारा उनकी कुछ विभूतियोंका वर्णन सुननेके बाद यह सुनकर कि-
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप।
एव तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया॥
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्न्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥
जैसे पुरुषसूक्त ने भी कहा है कि--“पादोऽस्य विश्वा
भूतानि " अर्जुन भगवान् की उस महान् विश्वव्यापी मूर्त्ति का दर्शन करना चाहता है, जो यथार्थमें उनकी सम्पूर्ण मूर्ति न होनेपर भी विश्वरूपिणी है, क्योंकि सारी दुनियाके अन्दर अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड भी तो भगवान् का एक छोटा अंशमात्र ही है। भक्तवत्सल भगवान् अर्जुनकी प्रार्थना स्वीकार कर उससे यह कहते हुए कि-
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम्॥
-उसे दिव्य नेत्र देकर अपने विश्वरूप का दर्शन
कराते हैं। परन्तु बड़े ही आश्चर्यकी बात तो यह होती
है कि भगवान् से दिव्य चक्षु प्राप्त करनेपर भी अर्जुन उस विश्वरूपका दर्शन थोड़ी ही देरतक कर सकता है, फिर घबराकर दिग्भ्रमादि से पीड़ित हो, स्वयं विवश होकर यह प्रार्थना करने लगता है कि-
"दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास'
"हे भगवन्, इस विश्वरूपका उपसंहार करके
अपनी उसी खण्ड-परिच्छिन्न मूर्त्ति का दर्शन दो जिसे मैं सदा देखता रहता हूँ।' यह विचार करनेकी बात है कि अर्जुनको तो भगवान् ने स्वयं 'भक्तोऽसि मे सखा चेति' इत्यादि कहकर विश्वरूप दिखलाया था- तत्तवोपदेश देकर सारथिरूपसे सेवा करते हुए उसे धन्यशिरोमणि बनाया था। जब इतने बड़े जबर्दस्त अधिकारीको दिव्य चक्षु मिलनेपर भी उस विश्वरूपके दर्शन करते रहनेकी शक्ति नहीं होती जो भगवान्का यथार्थमें एक छोटा अंशमात्र है, तब साधारण मन्दाधिकारी या अधमाधिकारियोंका यह कहना कि 'हम अपने साधारण चर्मचक्षु से केवल विश्वरूपका ही नहीं, भगवान् के सम्पूर्ण रूपका दर्शन कर सकते हैं" बड़े ही अहङ्कार की बात है। इससे बढ़कर अहङ्कार पूर्ण और सर्वथा अनधिकार साहसका दृष्टांत और क्या हो सकता है?
यह तो हुआ विश्वरूपदर्शनयोग (एकादशाध्याय)-
के प्रसङ्ग से हमारा किया हुआ अनुमान। अब यह देखना है कि भक्तियोग (द्वादशाध्याय)- में भगवान् ने अपने श्रीमुखसे ही यह स्पष्ट कह दिया है कि-
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते॥
अर्थात् "जो देहवान् हैं उनसे निर्गुण की उपासना
नहीं हो सकती।' तब फिर अशरीर कौन है? इसका
"अशरीरं वाव संतं सुखदुःखे न स्पृशतः " इस श्रुति ने
तथा-
"यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।'
'शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्॥'
- इत्यादि गीतावाक्योंने निर्वचन कर दिया है कि
जिसके शरीर, इद्रिय, मन तथा बुद्धिपर शीतोष्णादि
द्वंद्व-समष्टि का तनिक भी प्रभाव न पड़ता हो, अर्थात्
जिसको जिन्दे रहते हुए हो मृतकके समान चितापर
रखकर जलाये जानेपर भी तनिक-सी व्यथा न होती हो, वही अशरीर है और वास्तवमें वही निर्गुणके लिये
अधिकारी है। गीताके इन दोनों अध्यायोंसे अपने-आप
पता लग सकता है कि जगत् के जीवों के लिये सगुणोपासना की आवश्यकता है या निर्गुणोपासनाकी ?
अवतारवादके शास्त्रों से इस प्रकार सिद्ध होनेके
बाद अब अगला प्रश्न यह है कि अवतारों के बीचमें
भगवान् श्रीकृष्ण का कौन-सा स्थान है? इसके उत्तर में हमारा बस इतना ही कहना है कि-
'कृष्णस्तु भगवान् स्वयं।'
मतलब यह कि अन्य समस्त अवतार भगवान् के
अवतार हैं, परन्तु श्रीकृष्ण भगवान् के अवतार नहीं, स्वयं भगवान् ही हैं। इस सिद्धान्त के समर्थन में श्रीमद्भागवत आदि पुराणों में, श्रीमद्भगवद्गीता और उपर्युक्त उपनिषदोंमें खूब प्रमाण मिलते हैं, जिनके सारांशरूपसे इतना ही कहना पर्याप्त है कि और सब अवतारोँमें जो भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य हुए, वे सब-के-सब एक श्रीकृष्णावतारमें हुए। इसीलिये हम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र को पूर्णावतार और निर्गुण परमात्माका सगुण प्रतिरूप मानते हैं, क्योंकि
मूर्त्तिकी दृष्टिसे हमलोगों की योग्यताके अनुसार परिच्छिन्न होते हुए भी, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने कार्यों में तो ऐसी अपरिच्छिन्नता दिखायी है जैसी और किसी अवतारमें नहीं दिखायी। इसमें यह भी प्रमाण है कि इस अवतारमें केवल वेदोंकी रक्षा, हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, रावणादि एक खास व्यक्तिका संहार, भूमिका उत्थान, बलिराजाका दमन, क्षत्रियोंका क्षय, तत्त्वोपदेश, म्लेच्छोंका नाश इत्यादि एक-एक सङ्कुचित उद्देश्य नहीं हैं, बल्कि ऐसे समस्त उद्देश्यों की एक बड़ी भारी समष्टि है, जिसकी न कोई सीमा है और न हिसाब-किताब है। इसलिये कवि जयदेवने अपने गीतगोविन्दमें दशावतारोंका वर्णन करते हुए-
वेदानुद्धरते जगन्निवहते भूगोलमुद्बिभ्रते
दैत्यं दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षयं कुर्वते ।
पौलस्त्यं जयते हलं कलयते कारुण्यमातन्वते
म्लेच्छान् मूर्च्छयते दशाकृतिकृते कृष्णाय तुभ्यं नमः ॥
― कहकर मत्स्यादि अवतारों में श्रीबलरामजीको गिनकर भी सबको भगवान् श्रीकृष्णचद्रके ही अवतार माना है। तात्पर्य यह कि सब अवतारोंके किये हुए सब कार्यों की समष्टि भगवान् श्रीकृष्णने की है। अब इन
अनन्त और अपरिच्छिन्न कार्यों और गुणोमेंसे कुछ
खास-खास कार्यों तथा गुणोंका अत्यन्त सूक्ष्म और संक्षिप्त रीतिसे दिग्दर्शन कराया जाता है जिससे स्पष्ट होगा कि-
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।
वैराग्यस्याथ मोक्षस्य षण्णां भग इतींगना॥
― 'भगवान्' शब्दके इस लक्षणका केवल श्रीकृष्णचन्द्र में ही सम्पूर्ण रीति से समन्वय पाया जाता है। इस विवेचनसे 'कृष्णस्तु भगवानस्वयम्' का अक्षरशः
समर्थन और निरूपण होगा।
१- ऐश्वर्यस्य ( समग्रस्य )
भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके जन्मसे लेकर अन्ततक
सारे इतिहासकी प्रत्येक छोटी-छोटी घटनासे भी सिद्ध होता है कि भगवान् श्रीकृष्णके रूपमें समस्त जगत्के नाथ ही परिपूर्ण शक्तिसमेत भूलोकपर आये थे। उनका सर्वव्यापित्व ( अपरिच्छिन्नत्व ) तो उनको बाँधनेके लिये किये हुए प्रयत्न में श्रीयशोदाजीके अनुभव, द्रौपदी- वस्त्रापहरणके प्रसंग और हजारों पत्नियों के घरोंमे नारदजीके देखे हुए दृश्य आदि अनेक प्रसंगोंसे स्पष्ट है। पूतना-संहार इत्यादि बाललीलाओंसे लेकर अन्य
सब लीलाओंसे और इस बातसे कि कोई भी घटना
या प्रसंग ऐसा नहीं आता है जो भगवान् के अङ्कुश
के नीचे न रहता हो, भगवान्का सर्वेश्वरत्व अर्थात् “समग्र ऐश्वर्य” रूपी लक्षण इतना स्पष्ट है कि उसके अधिक विवरण, समर्थन या निरूपणकी आवश्यकता ही नहीं रह जाती।
२- धर्मस्य ( समग्रस्य )
धर्म उस साधन-सामग्रीका नाम है जिससे जगत् का
धारण (अर्थात् उद्धार) होता है। इस दृष्टिसे भगवान्
श्रीकृष्णचन्द्र साक्षात् धर्ममूर्त्ति ही हैं और इसमें यह
चमत्कार भी है कि दुनियामें जितने-जितने सम्बन्धों तथा हैसियतोंसे व्यवहार हुआ करते हैं, उन सबकी दृष्टिसे और देश, काल, पात्र, अवस्था, अधिकार आदि भेदोंसे हमलोगोंके जितने-जितने भिन्न-भिन्न धर्म या कर्तव्य हुआ करते हैं, उन सबमें भगवान् श्रीकृष्णने अपने अमृतरूपी उपदेशोंसे ही नहीं, प्रत्युत अपने आदर्श आचरणोंसे भी हमलोगोंको धर्मका स्वरूप दिखलाया और पथप्रदर्शन किया है। इन सब विषयोंमें एक छोटे-से-छोटा विषय भी ऐसा है जिसका अनेक बड़े-बड़े लम्बे व्याख्यानों और लेखोंसे भी पर्याप्त वर्णन नहीं हो सकता। इसलिये कुछ खास सम्बन्धोंके बारे में स्थालीपुलाक न्यायसे एक-एक छोटे दृष्टान्त के द्वारा दिग्दर्शन कराया जाता है और स्पष्ट किया जाता है कि श्रीभगवान् में परमार्थके साथ-साथ कितनी भारी व्यावहारिक धर्म-निपुणता भी थी, जिससे हजारों प्रकारके सम्बन्ध रखते हुए और भिन्न-भिन्न विचार तथा योग्यता रखनेवाले अधिकारियोंके साथ व्यवहार करते हुए श्रीभगवान् ने सबसे अपने संकल्पानुसार काम भी कराया और उनको ऐहिक और पारमार्थिक कल्याणके पथपर भी हमेशाके लिये चढ़ा दिया।
(१) माता-पिताके प्रति― श्रीभगवान् ने अपनी
सवा ग्यारह वर्षकी अवस्थामें कंसको मारकर श्रीदेवकीजी तथा श्रीवसुदेवजीको कारागृहसे छुड़ाया और उनसे हाथ जोड़कर अत्यन्त नम्रता के साथ कहा कि “आजतक गोकुल वृन्दावनमें रहनेके कारण आपकी कुछ भी सेवा न कर सका और मृतकके समान रहा इसके लिये क्षमा कीजिये"।
(२) पालक माता-पिताके प्रति―श्रीभगवान्का
अपनी बाल्यावस्थामें लगातार और कुरुक्षेत्र में सूर्यग्रहण के प्रसङ्ग पर श्रीयशोदाजी और श्रीनन्दगोपजीके साथ प्रेमपूर्ण लीलाएँ तथा अत्यन्त नम्रतापूर्वक व्यवहार करना सुप्रसिद्ध है।
(३) ज्येष्ठ भ्राता के प्रति― अत्युग्र स्वभाववाले श्रीबलरामजीकी इच्छा या सलाहके अनुसार चलना
जिन-जिन बातोंमें धर्म या नीतिकी दृष्टिसे मुनासिब नहीं था, उनमें भी श्रीभगवान्ने जगदीश्वर होते हुए भी उनको अनुनय-विनयसे सन्तुष्ट रखते हुए सर्वदा ज्येष्ठ भ्राता की सेवा की।
(४) गुरुके प्रति― श्रीभगवान्ने सर्वज्ञ, सर्वदा निर्मोह और किसीसे कभी भी उपदेश या सलाह लेनेकी
आवश्यकता न होनेपर भी गुरु श्रीसन्दीपिनिजी की बड़ी ही आदर्श सेवा की और उन्हें गुरुदक्षिणा दी।
(५) ब्राह्मणों के प्रति― केवल नारदादि महर्षियोंको
ही नहीं बल्कि तुच्छ-से-तुच्छ और अत्यन्त अकिञ्चन
सुदामा, श्रुतिदेव आदि ब्राह्मणों को भी भूलोकके देवता मानते हुए भगवान् ने अपने श्रीमुखसे तथा आचरणसे उनकी सेवा कर आदर्श ब्रह्मण्यता दिखायी।
(६) गोमाताके प्रति— श्रीभगवान्का गोमाता तथा
गोवत्सों की सेवा में बिताया हुआ अद्भुत तथा प्रेममय
बाल्यजीवन तो प्रसिद्ध ही है।
(७) पत्नियों के प्रति― 'बह्वयः सपत्न्य इव गेहपतिं
लनुन्ति' इस जगत्प्रख्यात अनुभवके रहनेपर भी
श्रीरुक्मिणी जी, श्रीसत्यभामाजी आदि अष्ट महिषियों के अतिरिक्त सोलह हजार स्त्रियों के पति होते हुए भी सबके साथ निष्पक्ष प्रेममय व्यवहारका दुनियाके गृहस्थोंको ऐसा आदर्श दिखाया कि जिससे श्रीभगवान्की पत्नियों ने कुरुक्षेत्र में द्रौपदीके पास अपनी धन्यता दिखाते हुए अपने मनकी यही इच्छा प्रकट की कि हमें जन्म- जन्मान्तरों में भी इन्हों भगवान् की सेवा करनेका सौभाग्य मिले।
(८) राजनीति-क्षेत्र में― श्रीभगवान्की अपार तथा
अद्वितीय राजनीति-कुशलता ऐसी थी जिसके प्रभावसे
सभी कार्यों में शत्रुओं की हार और श्रीभगवान्की कामयाबी होती थी और जिसको देखकर सन्धिविग्रहादि सर्व-कार्य-पारङ्गत अतिनिपुण विदुर, उद्धव, भीष्म आदि राजनीतिज्ञ-शिरोमणि भी आश्चर्यचकित हो जाते थे।
(९) शरणागत आर्तों के प्रति― अपनी की हुई
“तेषां योगक्षेमं वहाम्यहम्' 'न मे भक्तः प्रणश्यति' इत्यादि प्रतिज्ञाओं का पालन करते हुए श्रीभगवान्ने द्रौपदीकी मानरक्षा आदिके द्वारा अपनी आर्तत्राणपरायणता और अनाथनाथपनेका आदर्श परिचय दिया। जैसे आगे भी मीराबाईके दृष्टान्त में यह स्थापित किया कि-
द्रौपदी च परित्राता येन कौरवकश्मलात्।
पालिता गोपसुन्दर्य: स कृष्ण: क्वापि नो गत:॥
(१०) पतितोंके प्रति― श्रीभगवान् ने-
'अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि'
'अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।'
"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।'
- इत्यादि प्रतिज्ञाओं से अपनी पतित-पावनता
दिखायी।
(११) भक्तों के प्रति― श्रीभगवान् ने, श्रीवेदव्यास,
अक्रूर, उद्धव, विदुर और सञ्जय आदि भक्तजनोंके साथ उनके अधिकारानुसार जो व्यवहार किया और खास करके शत्रुपक्षके सेनाधिपति होकर अपने वाणोंसे श्रीभगवान् के शरीरसे खूब रक्त बहानेवाले अपने भक्तरत्न भीष्मजीकी प्रतिज्ञा के पालनके लिये-- 'छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम्' इस नियमसे भी आगे बढ़कर अपनी प्रतिष्ठाकी भी परवा न करते हुए भक्तकी प्रतिष्ठाकी रक्षा करके केवल भक्तवत्सलता नहीं बल्कि भक्तपराधीनता भी दिखायी, जिसका स्वयं भीष्मजीने अपने अन्तिम समयमें -- 'स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञाम् ऋतमधिकर्तुमवप्लुतो
रथस्थ:' इत्यादि श्लोकमें जिक्र किया था।
(१२) शिष्योंके प्रति― अपने चरणोंमें पहुँचकर
शिष्यभावसे-- 'शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्' ऐसा कहनेवाले अर्जुनको उपनिषदोंके सारांशरूपी अपनी गीताका उपदेश देकर अज्ञान-संमोहसे उसका उद्धार करके गुरुके यथार्थ लक्षणका परमसुन्दर लक्ष्य दिखाकर कृतार्थ किया।
(१३) मित्रों के प्रति ― श्रीभगवान् ने गोकुल-वृन्दावनमें गोपबालकों के साथ तथा गुरुकुलवासके समयके सुदामा आदि साथियोंके साथ सच्ची मित्रताका आदर्श लक्षण दिखाया।
(१४) शत्रुओं के प्रति― बचपनसे लेकर अन्ततक निर्भय तथा निश्चिन्त होकर बड़े-बड़े भयंकर शत्रुका और शत्रुओंकी अपार अक्षौहिणियोंका अनायास ही संहार या दमन करनेकी अद्वितीय शक्ति रखते हुए भी,
श्रीभगवान्ने यथासाध्य शान्तिसे ही काम लेनेके प्रयत्न का नियम रखा था। (जैसे दोनों पक्षोंकी सेनाओंके सन्नाह पश्चात् भी दुर्योधन के पास पाण्डवों के दूतरूपमें जाकर युद्धनिवारणका अन्तिम प्रयत्न किया। और अपने अन्तिम प्रयत्न के व्यर्थ होनेपर-
'परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय .............................॥
इस अपने कर्तव्यके पूरा करनेमें धर्मके खयालसे
प्रेरित होकर केवल जगतके कल्याणके लिये ही दुष्टों का संहार और सज्जनों की रक्षाके द्वारा धर्म की संस्थापना करते हुए और-
'सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ'
'रागद्वेषौ व्युदस्य च..…..........................'
'बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्'
- अपने इन उपदेशोंका आदर्श अपने आचरणसे दुनियाको दिखाते हुए, शत्रुओंके साथ भी रागद्वेषरहित
और निष्पक्ष रहकर ही व्यवहार किया था, इसीसे
नरकासुरको मारने तथा भीमसेनके द्वारा जरासन्धको
मरवा डालनेके बाद श्रीभगवान् ने उनके राज्योंको, स्वयं न छीनकर उन्होंके पुत्रों को प्रजारक्षणरूपी धर्मका उपदेश देकर अपने हाथों गद्दीपर बैठाया तथा उनका सब प्रकारसे पालन-पोषण तथा सहायता की। कर्तव्य-विवश हो जिनको श्रीभगवान् ने मारा, द्वेष न करते हुए उनको भी सद्गति प्रदान करनेका नियम तो आप पालते ही रहे (इससे सुदर्शनचक्रधारी और मुरलीधारीकी एकता ही
सिद्ध है।)
(१५) गोपियोंके प्रति- ब्रजवासी रसिकराज
श्रीभगवान्ने बचपनमें गोपियोंके साथ की हुई अपनी
'लीलाओंमें वात्सल्य, सख्य, दास्य, शान्त और माधुर्यादि भावोंका उज्ज्वल तथा आदर्श परिचय दिया था।
(१६ ) सारी दुनियाके प्रति-- राजसूय यज्ञ के प्रकरणमें
श्रीभगवान् ने सब लोगोंको अनेक प्रकारके अधिकार
देकर या कार्य बाँटकर अपने लिये तो- 'कृष्णः पादावनेजने' अभ्यागत-अतिथियोंके चरण धोनेका ही
काम लिया जिससे विष्णुसहस्त्रनामके बताये हुए-
"अमानी मानदो मान्य:" (अर्थात् स्वयं अहंकाररहित
परन्तु औरोंको मान देनेवाला अतएव माननीय) अपने
इन तीन नामोंको सफल कर सेवाधर्म (Ideal of Service) का परमोत्तम आदर्श दिखाया।
श्रीभगवान् के दिखाये हुए इन आदर्शों में से एककी
भी तुलना दुनियाभरके इतिहासमें खोजनेपर भी कहीं भी नहीं मिल सकती। इनमेंसे एक-एकपर भी हजारों
व्याख्यान और लेख हो सकते हैं तो भी विषय पूरा नहीं हो सकता। इसलिये इनका केवल उल्लेख करके हम आशा करते हैं कि इन दृष्टान्तों से पाठक स्पष्ट समझ जायेंगे कि सब प्रकारसे सब अंशों में श्रीभगवान् श्रीकृष्णचद्र साक्षात् धर्ममूर्ति थे और साथ ही उस प्रेमकी पराकाष्ठाके अवतार थे, जिसके अन्दर सारी दुनिया और खास करके शत्रुओंको भी श्रीभगवान् ने स्थान दिया था। ऐसे आदर्श धर्मावतार और प्रेमावतारके विषयमें यह सन्देह ही कैसे हो सकता है कि उनमें 'धर्मस्य समग्रस्य' यह लक्षण पूर्णरूपसे है या नहीं?
३- यशसः ( समग्रस्य )
भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र की विश्वव्यापिनी कीर्तिके
विषयमें तो पारमार्थिक दृष्टिसे यह भी कहा जा सकता
है कि दुनियामें जिन-जिनका गुणगान हो सकता है वे
सब भगवान्की एक छोटी विभूति होनेके कारण उन
सबकी कीर्ति भी भगवान्की ही कीर्ति है, क्योंकि
भगवान् ने तो (हृदयकी ऐसी विशालता तथा गम्भीरताके साथ, जो दुनियामें किसीमें पायी नहीं जाती,) स्वयं ही कहा है कि-
“यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति'
“येऽप्यन्यदेवता भक्ता.....................'
(अर्थात् किसीकी भी उपासना हो वह भी मेरी ही उपासना है) इत्यादि-- इस पारमार्थिक दृष्टि के अतिरिक्त, केवल सङ्कुचित व्यावहारिक दृष्टिसे भी यही सच्ची बात है कि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र की कीर्ति सर्वजगद्व्यापिनी है। दुनियाके प्रसिद्ध महापुरुषोंपर, आध्यात्मिक तथा तत्तवजिज्ञासु जगत् और साहित्यपर भगवान् श्रीकृष्णचद्रके इतिहास तथा उपदेशोंका जो प्रभाव पड़ा है उससे इस बातका पूरा-पूरा समर्थन होता है।
आध्यात्मिक तत्तवजिज्ञासु और तत्त्ववेत्ता जगत् में प्रसिद्ध जिन-जिन महानुभावों तथा साहित्यके जिन-जिन ग्रन्थों पर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके जीवचरित्र तथा उपदेशेंका प्रभाव पड़ा, उन सबका सूचीपत्र बनाना असम्भव है। परन्तु संक्षेपमें यही बताया जा सकता है कि ऐसा महापुरुष तथा साहित्य अत्यन्त विरल है जिसने जानते हुए या न जानते हुए श्रीकृष्णके इतिहास तथा उपदेशोंसे लाभ न उठाया हो और जिसमें श्रीकृष्णके प्रभावका कुछ-न-कुछ चिह्न न दिखता हो।
साधारण व्यक्तियोंकी बातोमें तो कुछ महत्त्व नहीं
है, परन्तु भारतके इतिहासमें जितने प्रसिद्ध साधु-सन्त
हुए हैं, उन सबपर श्रीकृष्ण-भक्तिका प्रभाव खूब पाया
जाता है। महाराष्ट्र, गुजरात, बंगाल आदि सभी प्रान्तों में यही बात हुई। हिन्दी कवितामें भी सूरदास आदि बड़े-बड़े कवियोंकी यही बात है। इसी प्रकार संस्कृत- सहित्यमें भी यही देखा जाता है कि माघके शिशुपालवध आदि काव्योंके अतिरिक्त, जिनमें श्रीकृष्णकी लीलाओंका ही वर्णन है, अन्य समस्त काव्योंमें भी श्रीकृष्णके इतिहास तथा उपदेशका प्रभाव ओतप्रोत नजर आता है।
भजनोंमें तो जयदेवके गीतगोविन्दने साहित्यके अन्दर ऐसा सुदृढ़ स्थान प्राप्त किया है जिससे वह कदापि हिल नहीं सकता।
अब हमें इस चमत्कारी बातका उल्लेख करना है कि जितने बड़े-बड़े धर्माचार्य हुए हैं, उनमेंसे एक भी ऐसा आचार्य नहीं, जो भगवान् श्रीकृष्णका भक्त न हुआ हो। श्रीरामानुजाचार्य, श्रीमध्वाचार्य, श्रीवल्लभाचार्य आदि वैष्णवसम्प्रदायप्रवर्तक आचार्यों के श्रीकृष्णभक्त होनेमें तो कोई बड़ी बात नहीं है, परन्तु जब देखा जाता है कि भगवान् शंकरके अवताररूपसे प्रसिद्ध जगद्गुरु आदिशंकराचार्य भी श्रीकृष्णके भक्त थे, तब तो सबको यही मानना पड़ता है कि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी मूर्ति, मुरली, लीला आदि सभी पदार्थ केवल श्रीराधाजी आदि गोपियोंके लिये हो मनोमोहक नहीं थे बल्कि वह यथार्थमें ही सर्व-जगन्मनोमोहक थे। इस प्रकरणमें हम सबको यह बात जाननी और याद रखनी चाहिये कि भगवान् श्रीआदिशंकराचार्यने स्वयं समस्त वैष्णव-आचार्योंसे भी बढ़कर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके स्तोत्र रचे हैं और उनके सिद्धान्त के सबसे बड़े जबर्दस्त प्रचारक 'अदवैतसिद्धि' ग्रन्थ के कर्ता श्रीमधुसूदनसरस्वती स्वामीके बनाये हुए 'भक्तिरसायन' से बढ़कर तो श्रीकृष्णभक्ति-प्रतिपादक ग्रन्थ ही और कौन होगा? उनके बनाये हुए कृष्णस्त्रोतों से बढ़कर या उनके समान भी आजतक
श्रीकृष्णके प्रेमसे भरे हुए स्तोत्र और किसने बनाये हैं?
उदाहरणार्थ यहाँ हम उनके बनाये हुए दो ही श्लोकों को उद्धृत करते हैं जिनसे स्पष्ट होगा कि निर्गुण निराकारवादके प्रतिपादकरूपसे जगद्विख्यात श्रीशंकराचार्यके सिद्धान्त के सबसे जबर्दस्त ग्रन्थकर्ता स्वामी श्रीमधुसूदन सरस्वती जैसे ज्ञानकाण्डी अद्वैतवादी और मायावादीके हृदयपर भी आनन्दकन्द पूर्णावतार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी मूर्ति किस तरह बैठी हुई है-
ध्यानाभ्यासवशीकृतेन मनसा यन्निष्कलं निष्क्रियं
ज्योतिश्चेतसि योगिनो यदि पर पश्यन्ति पश्यन्तु ते।
अस्माकं तु तदेव लोचनचमत्काराय भूयाच्चिरं
कालिन्दीपुलिनोदरे किमपि यन्नीलमहो धावति॥
वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्
पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् ।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्
कृष्णात्परं किमपि तत्त्वहं न जाने॥
क्या इसीसे यह स्पष्ट नहीं हो जाता कि अद्वैत-
सिद्धान्तके अनुयायी अद्वैतसिद्धि-ग्रंथकर्ता के विचारमें
भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र निर्गुण निराकार अखण्ड अपरिच्छिन्न सर्वव्यापी सर्वान्तर्यामी परमात्माका सगुण साकार खण्ड परिच्छिन्न पूर्णावतार था?
अब भारतवर्षके अतिरिक्त बाहरके जगत् पर भगवान् श्रीकृष्णका जो प्रभाव पड़ा है, उसका कुछ उल्लेख करना है। राज्यशासन, व्यापार आदि बाहरी वस्तुओं की सहायता या प्रभावसे जो असर पड़ता है उसे तो हम गिनतीमें ही नहीं लेते, केवल उसी असरकी कीमत की जा सकती है जो पदार्थकी स्वरूपभूत योग्यताके
आधारपर निर्भर हो और बाहरकी किसी वस्तुकी सहायता या प्रभावसे लाभ न उठाता हो। आजकल
भारतके राजनीति व्यापार आदिकी दृष्टिसे तो यूरोप,
अमेरिका आदिपर किसी भी शासनका नामतक चहीं है, तो भी यूरोपमें जर्मनी, इंगलैंड आदि देशोंपर और
अमेरिकापर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका खूब प्रभाव पड़ा हुआ है, जिसका अपनी स्वरूपयोग्यतासे अतिरिक्त और कोई भी कारण नहीं बताया जा सकता। इस सम्बन्धमें हमारे लिये विवरणमें न उतरकर दिग्दर्शनार्थ केवल एक ही अद्भुत बातका उल्लेख करना पर्याप्त होगा। वह यह है कि अंग्रेजी साहित्यमें बड़े तत्त्वदर्शियों (Philosophers) की गिनतीमें महान् ग्रन्थकर्ता टामस कार्लाइल और अमेरिकन-साहित्यमें राल्फ वाल्डो एमर्सन गिने जाते हैं, उनके इतिहाससे यह पता चलता है कि उन दोनोंने इस बातको स्वीकार किया था कि आध्यात्मिक विषयों पर अपने लिखे हुए जिन ग्रन्थों से उन दोनों ने यूरोप तथा अमेरिका को मुग्ध किया था, वे सब-के-सब भगवद्गीता के अंग्रेजी अनुवादोंसे साधारण तौरपर समझी हुई कुछ बातोंके आधारपर ही लिखे हुए थे।
इस खास बातका जिक्र किये बिना हम इस प्रकरणको नहीं छोड़ सकते कि असलमें तो रूस, यूनान
तथा फ्रान्स आदि देशों के बड़े प्रामाणिक पुराने ग्रन्थों से सिद्ध हो गया है कि पैगम्बर ईसाने भारतवर्षमें आकर भगवद्गीता आदि वेदान्त-ग्रन्थों का अध्ययन कर उन्हींका अपने देशमें जाकर प्रचार किया और ईसाइयों के मूलग्रंथ बाइबलकी सारी बातें भारतसे ली हुई बातोंके अनुवाद या केवल आभासमात्र हैं। इस सम्बन्ध फ्रान्सके सुप्रसिद्ध ग्रन्थकर्ता जकोलियाट द्वारा लिखित "The Bible in India Hindoo origin of Hebrew and Christian Revelation" इत्यादि ग्रन्थोंसे पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं।
इन सब बातोंसे सिद्ध होता है कि भगवान् श्रीकृष्णकी कीर्ति कितनी विश्वव्यापिनी है। जब दुनियाको उपर्युक्त रहस्यका पता लगेगा कि सारी पाश्चात्य दुनिया
जिस ईसाई-धर्मका नाम लेती है वह भी भगवान्
श्रीकृष्णके जीवन-चरित्र तथा उपदेशोंका ही एक नन्हा-सा बच्चा है, तब क्या हम यह आशा नहीं कर सकते कि भविष्यमे पाश्चात्य जगत् पर भगवान् का प्रभाव आजकलकी भाँति अज्ञात रूपसे नहीं बल्कि अत्यन्त प्रसिद्ध प्रकारसे अवश्य फैलेगा और पाश्चात्य मुक्तकष्ठसे भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र को अपना इष्देव मानने लगेगा?
तात्पर्य यह कि 'यशसः समग्रस्य' इस लक्षणका
भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें ही पूरा-पूरा समन्वय होता है और हो सकता है।
४-श्रियः ( समग्राया: )
जिस भगवान् ने अपने गरीब भक्त सुदामा को एक
मुट्ठी सूखे चावलकी कनी खाकर उसको अपने
सङ्कल्प मात्र से अनायास एक ही साथ बड़ा भारी
धनवान्-शिरोमणि बना दिया और जिस भगवान्की
सेवामें श्रीरुक्मिणीजी आदि अनेक रूपोंसे साक्षात्
श्रीमहालक्ष्मीकी ही सब कलाएँ सेवा करती थीं, क्या
उस श्रीपतिमें 'श्रियः समग्राया:' इस लक्षणके समन्वयके निरूपणका भी प्रयत्न करनेकी आवश्यकता है?
५- वैराग्यस्य ( समग्रस्य )
इतनी साम्राज्यसम्पत्ति, धर्मसम्पत्ति, कीर्तिसम्पत्ति
तथा धनसम्पत्तिके रहनेपर भी, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र में जो वैराग्य और अनासक्ति-सम्पत्ति विराजती थी, उस अद्भुत चमत्कारका कौन वर्णन कर सकता है?
श्रीभगवान्ने अर्जुनसे कहा है--
अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्नन चाक्रियः ।।
'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।'
'सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणा:॥'
'यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।'
- और इसी सिद्धान्त का श्रीभगवान् ने अपने आचरणोमें अद्वितीय आदर्श दिखाया। जगत्में उनके इस सिद्धान्तको उलटा करके-
"फलेष्वेवाधिकारो मे मा कर्मणि कदाचन"
- कहनेवाले अर्थात् कर्म न करके फल चाहनेवाले
तो खूब मिलते हैं, परन्तु लगातार दिन-रात अत्यन्त परिश्रम करते हुए भी फल न चाहनेवाले तो एक
भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं, जिन्होंने राजा कंसको मारकर उसकी गद्दीपर उग्रसेनको बैठाया, जरासन्ध तथा नरकासुरको मरवाकर तथा मारकर उनके पुत्रोंको ही सिंहासन प्रदान किया और स्वयं जीवनभरमें एक बार भी किसी राज्य आदिको नहीं अपनाया। इससे स्पष्ट है कि भगवान् में वित्तैषणा बिलकुल नहीं थी।
लोकैषणा अर्थात् प्रतिष्ठाकी इच्छाके विषयमें तो
भगवान् के लिये कहना ही क्या है, जिन्होंने अपनी
प्रतिज्ञा को तोड़कर भी भीष्मकी प्रतिज्ञाको पूर्ण किया तथा राजसूय-यज्ञमें सर्वपूज्य होकर भी अभ्यागतों के
चरण धोये और अपनेको-- 'अमानी मानदो मान्यः' (तथा) "मानापमानयोस्तुल्य:” अर्थात् लोकैषणारहित स्थापित किया।
स्त्री के विषयमें तो इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि
स्त्रीसे दूर रहकर विषयवासनारहित रहनेमें उतनी बड़ी बात नहीं है, जितनी हज़ारों स्त्रियों के बीचमें रहते हुए
भी सर्वथा विषयवासनारहित रहनेमें है। यह बात
भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने ही दिखायी। (१) उत्तम्भयन्रतिपतिं रमयाञ्चकार (२) सिषेव आत्मन्यवरुद्धसौरत: (३) भगवतो न मनो विजेतुम्, स्वैर्विभ्रमैः समशकन्वनिता
विभूम्न्:॥ ( ४) पल्यस्तु षोडशसहस्त्रमनङ्ग वाणैर्यस्येन्द्रियं विमथितुं करणैर्न शेकु:॥
इत्यादि अनेक प्रमाणोंसे सिद्ध है कि भगवान् जितेन्द्रियशिरोमणि और परमोत्कृष्ट योगिराज थे। दिश्दर्शनार्थ दिये हुए इन दृष्टान्तों से स्पष्ट है कि भगवान् श्रीकृष्णचद्रमें "वैराग्यस्य समग्रस्य" इस लक्षणका भी समन्वय हो गया।
६-मोक्षस्य ( समग्रस्य )
श्रीभगवान्के सारे इतिहाससे तथा भगवद्गीता से यह
निर्विवाद सिद्ध होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण कभी
किसी प्रकारके बन्धनमें तनिक-से भी नहीं थे। वे
सर्वथा मुक्त ही रहे। इस सम्बन्धमें इतना ही विचार
करना पर्याप्त होगा कि सब-के-सब मुक्त पुरुष जिनके
चरणोमें पहुँचकर कृतार्थ होते हैं, अर्थात् जिनके
चरणकमल मोक्षके मूलस्थान हैं, उनमें 'समग्र मोक्ष' के
समन्वयक विषयमें प्रश्न ही कैसे हो सकता है? इससे
श्रीभगवान्में 'मोक्षस्य समग्रस्य' इस छठे लक्षणका
समन्वय हो गया।
उक्त छः लक्षणोंके समन्वयसे यह सिद्ध हो
गया कि-
'कृष्णस्तु भगवान्स्वयम्'
अर्थात् भगवान् वही पूर्ण पदार्थ (Absolute and Allround Perfection) सगुण सम्पूर्णरूप थे,
जिसे श्रुति कहती है--
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
उपसंहार
जो इस प्रकार पूर्ण परमात्माका पूर्णावतार है वही
जगद्गुरु हो सकता है। क्योंकि गु=अज्ञान और रु=नाशक अर्थात् गुरु=अज्ञाननाशक। इसलिये जगद्गुरु को स्वयं शास्त्रज्ञ योगेश्वर और सर्वज्ञ होना ही चाहिये, जिससे वह दूसरोंके अज्ञानका नाश कर सके-
'स्वयं तीर्णः परांस्तारयति”
"स्वयं तरितुमक्षम: कथमसौ परांस्तारयेत्'
-यह न्यायकी बात है।
अज्ञान-अशान्ति और दुःखमें पड़कर रोते हुए
शरणागत होकर-
'शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्'
--कहनेवाले रथी नररूपी अर्जुनके सारथि नारायणरूपी श्रीकृष्णके दिये हुए गीतारूपी उपदेशसे
अर्जुनको जो ज्ञान, शान्ति और आनन्दके साथ विजय प्राप्त हुई, उससे स्पष्ट है कि यदि किसी नरको रोना
छोड़कर गाने अर्थात् शान्ति और आनन्द में रहनेकी इच्छा हो तो उसको चाहिये कि वह भी अर्जुनरूपी नरकी भाँति श्रीकृष्णरूपी नारायणको अपने शरीरादिरूपी रथका सारथि बनाकर उसके हाथोंमें अपने जीवनकी लगाम दे दे और -
'शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्'
कहकर-
तच्चिन्तनं तत्कथनमन्योन्यं तत्प्रबोधनं।
तदादेशपरत्वं च शरणागमनं विदुः॥
― इस निर्वचनके अनुसार भगवान् का सच्चा शरणागत बन उन्हींका ध्यान, नाम-जप, गुणगान और आज्ञापालन करता रहे।
एक चमत्कारकी बात यह है कि भगवान् ने अपने उपदेशमें कर्म, भक्ति और ज्ञानका जो समन्वय किया है कि-
“यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:।'
“तत्कुरुष्व मर्पणम्'
'यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते'
इत्यादि, इससे निष्काम कर्म, ईश्वर्पणबुद्धि से की हुई उपासना और त्याग अन्तमें एक ही वस्तु निकलते हैं। अतएव श्रीभगवान् ने सारी दुनियाके सब प्रकारके
अधिकारियोंके लिये मोक्षका कोई-न-कोई रास्ता बना दिया है। इसलिये श्रीभगवान् ही सारे जगत्के लिये गुरू हो सकते हैं और केवल उन्हींका बताया हुआ धर्म
'विश्वव्यापी-धर्म हो सकता है।
ऐसे भगवान् की चरणधूलि चाहते हुए, उन्हीं के उपदेशसे मिले हुए परमतत्त्वका अनुसन्धान करते हुए
या उन्हींका नाम रटते हुए, उन्हींका गुणगान करते हुए, गद्गद-कण्ठ होकर प्रेमाश्रु गिराते हुए जो जीव अपना समय बिताते हैं वे ही धन्य हैं और वे ही कृतकृत्य हैं, क्योंकि उन्हीं के हाथोंमें इहलोकमें कल्याण, परलोकमें भगवत्सायुज्य-मोक्षरूपी परम और शाश्वत कल्याणकी कुंजी है।