जीवन में संतुष्ट कैसे बनें?

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किसी श्रोता का प्रश्न - जीवन में ऐसे बहुत समय आते हैं जब हम सफलता पर पहुँच जाते हैं लेकिन self satisfy नहीं हो पाते, और आगे जाना चाहते हैं।  तो self satisfaction कैसे आये? 

शंकराचार्य जी का उत्तर - ऊँची छलांग लगाने पर व्यक्ति कभी-कभी चूक जाता है तो पाँव टूट जाते हैं। लंगूर की कहावत सुनी है? लंगूर दूसरी शाखा का दर्शन करके अगर मन बना ले कि वहाँ तक छलांग लगाकर पहुँचना है, कदाचित् छलांग लगाने पर उसे लगता है कि नहीं पहुँच पाउँगा तो पीछे जहाँ से छलांग लगाई वहीं पहुँच जाता है। ऊँची छलांग लगाने वाले को लंगूर से शिक्षा लेनी चाहिए। 

प्रायः होता यही है, मनसूबे बहुत होते हैं आजकल और प्रयत्न उसके अनुसार कम होता है। दूसरी बात यह है कि एक मनसूबे की पूर्ति हुई नहीं उसके लिए उचित प्रयास किया नहीं तब तक और कोई मनसूबा / मनोरथ को पाल लेते हैं। मनोरथ पालते जाते हैं और एक भी मनोरथ की पूर्ति के अनुकूल प्रयास नहीं करते तो गड़बड़ कांड हो जाता है, गड़बड़झाला। सम्भवतः आपके जीवन में यही होता होगा। इसलिए बहुत सोच समझकर लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। और लक्ष्य की पूर्ति के लिए जो उचित प्रयास है, अवश्य करना चाहिए। 


 एक विचित्र बात है... अगर कोहरा न हो, आँख की रोशनी कम न हो तो व्यक्ति जहाँ खड़ा होता है, देखता दस कदम आगे है। हम लोग बचपन में विद्यालय जाते थे 2 किलोमीटर दूर या 3 किलोमीटर दूर कोहरे में, बहुत दूर तक तो नहीं 10 फीट तक दिखाई पड़े, फिर चलो, फिर आगे 10 फीट तक दिखाई पड़े। कोहरे में भी विद्यालय पहुँच जाते थे। तो हमेशा स्थिति और दृष्टि में ही अंतर है। यहाँ जमीन पर खड़े होकर रात में ऊपर देखिए, ध्रुव तारे दिख जायें, सप्तर्षि दिख जायेंगे, बीच में ध्रुव तारे। करोड़ों किलोमीटर दूर हैं। दृष्टि तो वहाँ पहुँच जाएगी लेकिन स्थिति तो यहीं है न! इसलिए एक नियम है, किसी भी भौतिक या आध्यात्मिक मार्ग में जब व्यक्ति चलता है, आगे की भूमिका उसे स्वयं दिखाई पड़ने लगती है। इसलिए लक्ष्य निर्धारित करके तदनुकूल कदम उठाना चाहिए। बार-बार लक्ष्य बदलना नहीं चाहिए। लक्ष्य निर्धारण करने में अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है। यह व्यापार कर लूँ…  वह कर लूँ..  इस फैक्ट्री में नौकरी कर लूँ…  ये कर लूँ… वो कर लूँ… ज्यादा मनोराज्य नहीं।  एक सुस्थिर लक्ष्य,  उसकी पूर्ति के लिए उचित कदम…। 


  और एक आपको हम गम्भीर रहस्य बताते हैं बाल-गोपाल हो इसलिए… ढिंढोरा मत पीटिये,  अपने अंदर की योग्यता आप बनाते चलिये, एक हज़ार व्यक्ति टाँग खींचने वाले हों तो, घोर कलियुग हो तो, ईश्वर का ऐसा सम्विधान है कि आपकी योग्यता के अनुसार, बेखटके भगवान् वहाँ लाकर आपको रख देंगे। समझ गये? 

मुझे नहीं दिखता कि कलियुग है, क्यों नहीं दिखता? मैंने गुप्त रहस्य बताया। क्या गुप्त रहस्य है? आप योग्यता, अंदर से योग्यता पालते रहिये, दिव्यता जीवन में लाते रहिये। आपकी योग्यता के अनुसार हजारों प्रतिद्वंद्वी हों, कुछ नहीं बिगाड़ सकते, ईश्वर आपको यथास्थान पहुँचा देंगे। और अगर अच्छी जगह पहुँच गये और गन्दी धारणा पालते रहे तो उस अच्छी जगह से जहाँ पटकना होगा ईश्वर को, उठा के पटक देंगे। हमारे पास बहुत से व्यक्ति आये, उनकी नियत बहुत खराब थी। बाहर से बड़े टीम-टाम आस्तिकता का परिचय दे रहे थे, कुछ वैज्ञानिक ढंग के, कुछ कैसे, कुछ कुछ। प्रकृति ने उनको इतनी दूर फेंक दिया कि मरने के बाद तो नरक जायेंगे और जीवन में मेरे पास फिर टिक नहीं सकते, आ नहीं सकते। इसका मतलब अच्छी जगह जा करके भी कोई… समझ गये? अच्छी जगह जा करके भी कोई गन्दे भावों को पालता है तो भगवान् की शक्ति प्रकृति वहाँ रहने नहीं देती। किसी प्रबल प्रारब्ध के कारण अच्छी जगह पहुँच तो जाता है लेकिन फिर दुर्भावना के कारण प्रकृति वहाँ रहने नहीं देती। 


इसी प्रकार मैंने कहा... छलांग ज्यादा ना लगावें। 


चलो एक संस्मरण सुना दें… पहले हम तिबिया कॉलेज हायर सेकेंडरी स्कूल, दिल्ली के विद्यार्थी थे। लेकिन उस हायर सेकेंडरी स्कूल में साइंस की पढ़ाई नहीं थी। आठवीं के बाद, हमसे जो बड़े भाई… वो डॉक्टर थे... उन्होंने कहा साइंस की पढ़ाई होनी चाहिए। किशनगंज डी.सी.एम हायर सेकेंडरी स्कूल हमको ले गये। दिल्ली क्लॉथ मिल का एक हायर सेकेंडरी स्कूल। वहाँ दिल्ली क्लॉथ मिल में जिनके पिता आदि नौकरी करते, उनके बच्चों को लिया जाता था। अन्दर की भावना यह थी। सरकारी नियम के अनुसार यह लिखा गया था कोई भी लिया जा सकता है। प्रथम श्रेणी से आठवीं में उत्तीर्ण था। नौवीं में साइंस लेकर पढ़ना था। अब टालने की दृष्टि से, जो फिजिक्स विभाग के प्रमुख थे, उनके पास ले गये मेरे भाई। उन्होंने कहा - इस बच्चे की परीक्षा होगी। तो वो बड़े भाई मनोवैज्ञानिक थे। उन्होंने समझ लिया कि यह व्यक्ति आर्य समाजी है अध्यापक फिजिक्स वाला (भौतिक विज्ञान वाला)। तो उन्होंने मनोविज्ञान का प्रयोग किया - ठीक है! आप इसकी परीक्षा ले लीजिए, प्रथम श्रेणी से आठवीं इसी दिल्ली से पास है, यह प्रमाण पत्र है। लेकिन आपको मैं कहता हूँ - 1000 गायत्री मन्त्र हर रोज़ यह जपता है। 


अध्यापक ने मुझसे कहा - अच्छा! बोल गायत्री मन्त्र का अर्थ क्या है? वो आर्य समाजी ठहरे। मैंने आर्य समाजियों का अर्थ ही बोल दिया - धारण करें हम सविता देव के उस दिव्य तेज को करें जो हमारी धारणा को दिव्य। 


अरे! यह तो गायत्री मन्त्र का अर्थ जानता है। 

 अच्छा बोल !....  (बड़ा घुड़की दिया जिससे डर जाये) साइंस क्यों लेना चाहता है? 

अब मैं कोई सोच कर गया था कि यही पूछा जायेगा? 

 साइंस क्यों लेना चाहता है? 

 मैंने कहा - विश्व का सबसे बड़ा वैज्ञानिक बनना चाहता हूँ। 

 अध्यापक ने कहा - जिसका इतना बड़ा मनोबल है, उसकी परीक्षा नहीं होगी। 


 अब मुझे आज भी हंसी आती है कि मैं तो कोई यह सोच कर नहीं गया था कि उत्तर दूँगा या यह प्रश्न होगा? फिर सोचता हूँ कि मैं तो बाबा हो गया। तो वह बात मेरी झूठी गयी क्या? 

झूठी नहीं गयी। वह जो गणित के मेरे दस ग्रन्थ हैं और एक हज़ार पृष्ठ की सामग्री अभी मेरे मस्तिष्क में कम से कम और है। पूरे विश्व को चकाचौंध करने वाले। पाँच हज़ार वर्ष पहले भी जो गणित के सिद्धान्त लुप्त हो गये थे, उसमें हैं। 


तो हमने एक संकेत किया कि मनोबल तीव्र हो, कोई रोड़ा अटकाने वाला नहीं होता है। मनोबल साध के रखिये, लेकिन मनसूबा ऊँचा हो, कदम ढीला हो यह नहीं। और बार-बार लक्ष्य नहीं बदलना चाहिए।



govardhan math puri shankaracharya swami nishchalanand saraswati pravachan 

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सुसंस्कृत, सुशिक्षित, सुरक्षित, सम्पन्न, सेवापरायण, स्वस्थ और सर्वहितप्रद व्यक्ति तथा समाज की संरचना हमारा लक्ष्य है।

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