*हुगली धर्मभा में हुए प्रवचन का कुछ अंश -*
*इस बात की सावधानी बरतनी चाहिये कि कीर्तन के गर्भ से कहीं कम्युनिज़्म न निकल आये।*
हम भी कीर्तन करते हैं, कराते भी हैं। कीर्तन के हम बहुत पक्षधर हैं, पर सुनना चाहिये समझना चाहिये कि कीर्तन के गर्भ से कहीं कम्युनिज़्म न निकल आये। कीर्तन बहुत बढ़िया है लेकिन क्षात्र धर्म का परित्याग करके कीर्तन को प्रश्रय देने के कारण बङ्गाल में कम्युनिस्ट छा गये। वर्तमान शासन पर भी गुप्त या प्रकट कम्युनिस्टों का ही प्रभाव है। और सुनिये, बुद्धिज़्म के नाम पर तिब्बत में कम्युनिज़्म छा गया। पुराना इतिहास यह कहता था, जबतक क्षात्र धर्म में प्रतिष्ठित थे तिब्बत के व्यक्ति तो चीन उनके सामने नतमस्तक रहता था। बुद्धिज़्म के चपेट में आकर तिब्बत इतना गिर गया कि आज चीन ने उसको हड़प लिया है।
कीर्तन भी होना चाहिये लेकिन कीर्तन के नाम पर क्षात्र धर्म का विलोप न हो। अगर कीर्तन के नाम पर क्षात्र धर्म का विलोप हो जाता है तो कम्युनिज़्म पनप जाता है जैसे कि बङ्गाल कम्युनिस्टों के अधीन हो गया। अभी भी लगभग ऐसा ही है। और बुद्धिज़्म के नाम पर वर्णाश्रमोचित नियन्त्रण खो देने के कारण अहिंसा के नाम पर फिर कम्युनिज़्म छा जाता है। जैसे कि तिब्बत आज कम्युनिस्टों के अधीन है।
तो हमने संकेत किया - अतिरेक किसी का न हो। कीर्तन का भी स्थान है लेकिन वर्ण धर्म, आश्रम धर्म का महत्व कम नहीं है। क्षात्र धर्म का महत्व कम नहीं है। कीर्तन के गर्भ से कहीं कम्युनिज़्म न निकल आये। इसके लिए सावधान रहना चाहिये। कीर्तन का महत्व है लेकिन वर्णाश्रम धर्म का अनुपालन भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कीर्तन के समय कीर्तन.... लेकिन क्षात्र धर्म का विलोप न हो। वर्ण धर्म का विलोप कीर्तन के नाम पर न हो। जहाँ परम्परा से वर्णाश्रम धर्म है, कीर्तन के नाम पर उसको शिथिल न होने दें यह भी आवश्यक है।
श्रीचैतन्य महाप्रभु का जीवन चरित्र हमने पचास बार पढ़ा होगा। गीताप्रेस से प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी का लिखा हुआ। और बङ्गाल से भी प्रकाशित चैतन्य महाप्रभु जी के जीवन चरित्र का हमने अध्ययन किया। तप, त्याग, भगवद्भक्ति से समन्वित उनका जीवन था। कीर्तन के नाम पर विद्या और तप का ह्रास नहीं होना चाहिये। श्रीचैतन्य महाप्रभु में तप की पराकाष्ठा। पुरी में ही उन्होंने निवास किया। भगवान् श्री जगन्नाथ के विग्रह में स्वयं को समाहित कर लिया। कीर्तन करते थे लेकिन तप का और विद्या का भी उनके जीवन में पूर्ण साम्राज्य था। जहाँ उनको अवतार कोटि का माना जाता है या अवतार माना जाता है, स्वागत है। लेकिन व्यवहारिक धरातल पर हम देखें तो उनके जीवन में कीर्तन भी, विद्या भी और तप भी। कीर्तन के साथ विद्या और तप का विलोप न होने दें।
एक और फैशन चल पड़ा है, कीर्तन पर इतना तबला और ढोल की आवाज कर देते हैं, माइक के प्रयोग से फिर कीर्तन के नाम पर चारों ओर कोलाहल का वातावरण बन जाता है। एक घटना है, गोवर्द्धन मठ पुरी के पास ओङ्कार मठ है। पाँच-छःसाल पहले, ब्रह्म मुहूर्त में ही कीर्तन शुरू कर देते थे माइक से। मैं तो पढ़ने-लिखने वाला व्यक्ति। मेरा पढ़ना-लिखना सब बन्द हो जाये। हमारे मठ की ओर ही (लाउडस्पीकर का मुख) कर दें। एक कोई सज्जन चातुर्मास करने आये थे ओङ्कार मठ में। हमने बड़े प्रेम से बुलाया। उन्होंने कहा महाराज, आसपास जो पापी व्यक्ति हैं उनका उद्धार करने के लिये जोर-जोर से कीर्तन माइक के माध्यम से होता है। मैंने कहा हमारे यहाँ कोई पापी नहीं है, इधर मुख मत कीजिये माइक का। वो समझ गये। अब अच्छा है। चार वर्षों से कोई कोलाहल नहीं है।
कीर्तन खूब कीजिये लेकिन माइक के द्वारा कीर्तन हो, चौबीस घण्टे कीर्तन हो, कैसेट के द्वारा कीर्तन हो.... यह सब ठीक नहीं।
जिसका अतिरेक हो जाता है उसी के गर्भ से विस्फोट निकल आता है। तपस्या और विद्या के साथ-साथ कीर्तन का योग था श्रीचैतन्य महाप्रभु में।
तप और विद्या का अपकर्ष हो गया कीर्तन के नाम पर तो कम्युनिस्ट आकर छा गये। वर्णाश्रम की सीमा में अहिंसा जब तक थी तब तक राष्ट्र सुरक्षित था। वर्णाश्रम की सीमा छोड़ देने पर अहिंसा के गर्भ से कम्युनिज़्म निकल आया तिब्बत आदि में। तिब्बत के व्यक्ति जब तक क्षात्र धर्म का पालन करते थे तो चीन नतमस्तक रहता था। जब बुद्धिज़्म के रङ्ग में रङ्ग गये तब चीन की दासता प्राप्त हो गई।
तो आज के प्रवचन का सार निकला - कीर्तन भी हो और हर प्रकार से क्षात्र धर्म का लोप न हो। कीर्तन के नाम पर तप और विद्या का विलोप न हो। श्रीचैतन्य महाप्रभु को आदर्श मानकर विद्या भी हो, तप भी हो और कीर्तन भी हो। कीर्तनीय तो भगवान् हैं।
अब बङ्गाल का एक हिस्सा हो गया बांग्लादेश। लो जी। यह कीर्तन के गर्भ से राष्ट्र का कर्तन कहाँ से निकल आया? बङ्गाल का एक हिस्सा हो गया बांग्लादेश, तो यह तो ठीक नहीं रहा, विभाजन हो गया।
तो हमने संकेत किया - ऐसे ही सब जगह विसङ्गति हैं। चारों ओर विसङ्गति हैं।
तो हमने संकेत किया - कीर्तन भी होना चाहिये, तप भी होना चाहिये, विद्या भी होनी चाहिये, सङ्घ बल भी होना चाहिये।
- पुरी शङ्कराचार्य जी
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