लूटकर, दूसरों के हक को छीन करके खूब माखन मिश्री पाने वाले, ऐश-आराम से जो रहने वाले हैं उनका भविष्य बहुत अंधकारमय है। जो ईमानदारी के कारण कठिनाई से जीवन यापन करते हैं इस समय उनका जीवन कष्टयुक्त है, तपोमय है। स्वधर्म की सीमा में, धन अर्जन करने में कठिनाई के कारण जीवन यापन में जो संकट का सामना करना पड़ता है वह तप है और एक विचित्र बात है - जिमि सरिता सागर महुं जाही। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।। तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएं। धरमसील पहिं जाहिं सुभाए,
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी। (भगवद्गीता 2.70)।
धर्म के दो फल हैं। धन-मान धर्म का फल अवश्य है। सुनिये, युधिष्ठिर जी ने कहा कि धर्म का पालन करता हूँ लेकिन कष्ट ही कष्ट मिलता है। मस्तमौला दुर्योधन तो मलाई चाटता है। तो भीष्म जी पहले ताव में नहीं आये थे लेकिन बाद में ताव में आकर बोलने लग गये... परमात्मा में / ईश्वर में भी क्षमता नहीं है कि धर्म का फल दुःख दे दे। धर्म का फल सुख ही होता है। सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता… एक तो सावधानी यह रखनी चाहिये कि धर्म के नाम पर धर्म का ही अनुष्ठान हो रहा है या कुछ और.. समझने में कहीं भूल तो नहीं है। दूसरी बात यह है- धर्म के लौकिक फल हैं अर्थ और काम। लेकिन भगवान् का वचन है जिस पर मैं विशेष अनुग्रह करना चाहता हूँ या करता हूँ उसके धन का अपहरण कर लेता हूँ। धन कमाने के लिए जितने हाथ पाँव चलाता है, उसमें रोड़ा डाल देता हूँ। अंत में फिर भी कोई चेतता नहीं तो आपस में विरोध (झगड़ा) करवा देता हूँ। जिसको मैं अपनी ओर खींचना चाहता हूँ वह अगर विवेक के बल पर वैराग्य का आलम्बन नहीं लेता तो उसके मार्ग में मैं रोड़ा अटकाता ही जाता हूँ। झक मार करके वो मेरी ओर आता है।
दो प्रकार का अनुग्रह है। आर्त और अर्थार्थी पर भगवान् का अनुग्रह क्या है - संकट का निवारण, रिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति। जिसको भगवान् अपने सन्निकट जिज्ञासु भक्त बनाना चाहते हैं, ज्ञानी भक्त बनाना चाहते हैं उसके मार्ग में ऐसा रोड़ा अटकाते हैं कि धर्म का असली फल उसे मिल जाए। धर्म ते विरति योग ते ज्ञाना, ज्ञान मोक्षप्रद वेद बखाना| धर्म का असली फल क्या है - वैराग्य। वैराग्य के अनुकूल जो परिस्थिति उत्पन्न होती है, भ्रम हो जाता है कि धर्म का फल हमारे सामने 'संकट' आ गया।
मैं अपना अनुभव बताता हूँ - पढ़ने में भगवत्कृपा से तेज था और सबसे अच्छा था। तीसरी कक्षा में भी हमारे जो अध्यापक थे चुपके से बोलते थे, किसी को बताना मत, अपनी कॉपी भी स्वयं जाँच लेना औरों की कॉपी भी जा जाँच लेना, तुम ईमानदार हो। तीसरी कक्षा में भी साथियों की कॉपी मैं ही जाँचता था। किसी को मालूम नहीं कि नम्बर देने वाला मैं था लेकिन ऐसा होने पर भी जो प्रश्न-पत्र आना होता था स्वपन में ज्यों का त्यों आ जाता था। एक वो कृपा हुई न?
जब भगवान् ने सोचा कि अब इसको उस मार्ग से (आधुनिक शिक्षा के मार्ग से खींचकर इधर ले आऊँ)... सच्ची बात है कि… तिबिया कॉलेज दिल्ली की बात है.. मैं ऊपर वर्षाती में रहता था, नीचे जो कमरे थे उनमें नहीं रहता था और कोई वहाँ पर चोर आदि कुछ नहीं... परीक्षा के दिन नजदीक आते तो 10-15 दिन पहले पुस्तक लुप्त हो जाती। चोर आदि की गति नहीं थी। और परीक्षा देकर आता तो पुस्तक मेरी आँखों के सामने प्रकट हो जाती। यह खेल एक वर्ष चला, मैंने सोचा कि ये क्या संकेत है? एक दिन वह था जब प्रश्नपत्र स्वपन में आ जाते थे और अब वह दिन है जब पाठ्यपुस्तक ही गायब हो जाती है। ब्राह्मण ठहरे…कहाँ से इतना रुपए लाएँ कि पुस्तक लुप्त हो जाए तो फिर से खरीदें? हमने सोचा कि यह संकेत है भगवान् का कि इधर की पढ़ाई पूरी हो गई। जिस पढ़ाई के लिए जन्मे हो उधर चलो।
तो मैंने कहा कि सचमुच में धर्म को धर्म समझकर पालन करने पर भी अगर प्रवृत्ति में सफलता नहीं मिलती तो समझना चाहिए कि भगवान् हमको निवृत्ति मार्ग का पथिक बनाना चाहते हैं।
Video :- https://youtu.be/O1kTxPeDmuI