बलि प्रथा क्या है? इसे समझिये

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बलि प्रथा क्या है? इसे समझिये


किसी श्रोता का प्रश्न - मैं जसपुर ज़िला, छत्तीसगढ़ से हूँ। मेरा यह प्रश्न है कि नवरात्री के उपलक्ष्य में जसपुर ज़िला में पशुबलि दी जाती है। राजस्थान के एक सन्त हुए हैं श्रीरामचन्द्रजी महाराज1।  उनके कुछ शिष्यों का कहना था कि बहुत पहले स्वामी श्री धर्मसम्राट करपात्री जी महाराज का आगमन हुआ और फिर कुछ शास्त्रार्थ अथवा क्या हुआ मुझे विशेष नहीं पता लेकिन उसके उपरांत पशुबलि वहाँ पर प्रारम्भ हो गयी। महाराज जी! इसके पक्ष में तो मैं बिल्कुल नहीं हूँ लेकिन वहाँ पर इसकी समापन कैसे हो और इसको कैसे बन्द किया जाये उसका समाधान करिये। 


शंकराचार्य जी का उत्तर - दक्षिण और वाम दो मार्ग से पूजा की पद्धति होती है। जो तान्त्रिक होते हैं प्रायः कापालिक होते हैं वे वाममार्ग से पूजा की पद्धति क्रियान्वित करते हैं। भैरव जी को बलि इत्यादि की प्रथा भगवान् शङ्कराचार्य जी के सामने थी। कापालिक लोग ऐसा करते थे। उसके पीछे भी कोई दर्शन है। दर्शन क्या है? जिह्वा की लोलुपता के वशीभूत होकर नहीं, शास्त्रीय विधा, तान्त्रिक विधा का आलम्बन लेकर यदि बलि देने योग्य पशु की बलि दी जाती है तो वह पशु देवी के लिए प्रयुक्त होने के कारण देहत्याग के बाद दिव्य देह, इन्द्रिय, प्राण, अन्तःकरण से युक्त जीवन प्राप्त करते हैं। एक सिद्धान्त यह है। 

कूष्माण्ड बलि - पेठा जिससे बनता है न, वह कूष्माण्ड। पशु के स्थान पर कूष्माण्ड बलि की भी प्रथा है। भगवान् शङ्कराचार्य ने दक्षिण मार्ग से मोदक इत्यादि निवेदित करके पूजा प्रथा को ख्यापित किया। उनके द्वारा प्रतिष्ठित जो चार आम्नाय पीठ हैं उसमें गोवर्द्धनमठ भी है पूर्व दिशा में ऋग्वेद से सम्बद्ध। वहाँ बिल्कुल सात्विक विधा से ही देवी की समर्चा होती है। 


एक शास्त्र का शब्द है - परिसंख्या विधि। मद्य, मैथुन, मांस में मनुष्य की स्वाभाविकी प्रीति-प्रवृत्ति होती है। मद्य, मैथुन, मांस... कहाँ से बोल रहा हूँ? मनुस्मृति से। उच्छृङ्खल प्रवृत्ति को रोकने के लिये विहित देवता को विहित पशु आदि की बलि देकर, बलि के बाद प्रसाद के रूप में मांस का सेवन करने पर चटोरी जिह्वा पर नियन्त्रण का मार्ग प्रशस्त होता है। इसका नाम है परिसंख्या विधि। कोई chain smoker है। वह 50 सिगरेट रोज़ सुलगा लेता है। मैंने chain smoker को देखा है। मैं कोई उस व्यसन से कभी युक्त नहीं था। मादक द्रव्य का कभी बचपन से अब तक सेवन ही नहीं किया। कोई chain smoker है, पचास सिगरेट रोज़ पीता है, उसे कह दिया जाये भाई 10 पी लिया करो। 10 पीने का विधान है ऐसा लगता है लेकिन न पीने की भावना उस विधि के पीछे सन्निहित है। इसका नाम है परिसंख्या विधिशनैः शनैः उच्छृङ्खल प्रवृत्ति में संकोच। विवाह भी परिसंख्या विधि के अन्तर्गत। बिना मैथुन के तुम नहीं रह सकते, पत्थर से सिर पीटकर देहत्याग करोगे तो विधिवत् विवाह करके फिर वंश परम्परा भी चलाओ और मन में जो मैथुन की भावना है उसको संयत करो। मनु जी ने कहा - निवृत्तिस्तु महाफलः।  

कदाचित् कोई इतना मनोबल सम्पन्न है तो उसके लिये फिर बलि की आवश्यकता नहीं है।  तो देवी-देवता के निमित्त पर्वादि के अवसर पर उनको निवेदित किया हुआ… छाग इत्यादि की सद्गति तो यूँ हो गयी कि देवी के निमित्त उनके जीवन का उपयोग हुआ। और जो मांसभक्षी हैं उनके जीवन में उच्छृङ्खल प्रवृत्ति संकुचित हो गयी। लेकिन मनोबल ऐसा होना चाहिए कि मांस इत्यादि का सेवन बिल्कुल न करें तो अच्छा है। 


उसमें भी एक विचित्र बात है। गूदा (फल के गूदा) के लिये दो ही शब्द संस्कृत में मिल सकते हैं - उसमें पहला शब्द है मांस। गूदा का अर्थ संस्कृत में अनुवाद करेंगे तो मांस बनेगा। इसलिये उच्छृङ्खल प्रवृत्ति को दूर करने के लिये विन्ध्याचल इत्यादि में, जहाँ-जहाँ बलि की प्रथा है, उसमें परिसंख्या विधि समझनी चाहिये। 


देवी-देवताओं के भी दो भेद हैं। एक वाम विधा से अर्चा योग्य देवी-देवता और एक दक्षिण विधा से अर्चा योग्य देवी-देवता। जैसे वामन जी इत्यादि, और उधर काली जी इत्यादि। देवी-देवताओं के भी दो प्रभेद कर दिये जाते हैं। सबका सार यह निकला कि परिसंख्या विधि। अगर जीवन में मांस सेवन किये बिना रहा जा सके तो इससे अच्छी बात कुछ नहींअगर नहीं रहा जा सके तो देश, काल, परिस्थिति, देवी-देवता के द्वार से उनको निमित्त बनाकर बलिप्रथा को एक प्रकार से वैध सिद्ध कर सकते हैं। उत्तर हमने विस्तारपूर्वक दिया। 


और कुछ बुराई में भी अच्छाई है। हरियाणा आदि में, उत्तरप्रदेश के पश्चिम क्षेत्र में आर्यसमाजियों की दाल गल गई क्योंकि यह क्षेत्र शाकाहारियों के हाथ में था। और जहाँ पर मांसाहारी रहते थे वहाँ आर्यसमाजी जाते तो उन्हीं को फाड़ के मांस बनाकर खा जाते। ध्यान गया आपका? कुछ बुराई भी अच्छाई के रूप में परिणत हो जाती है। आर्यसमाजी तो शाकाहारी होते हैं, अगर वो आसाम, बङ्गाल आदि में पहुँचते तो उन्हीं को मारकर खा जाते। इसका मतलब कुछ अंश में जहाँ वैध विधा से मांस सेवन था वहाँ बहुत से पन्थाइयों की दाल न गली। वे भी हमारे रक्षक हो गये। और जहाँपर शाकाहारी व्यक्ति ही थे वहाँ पर आर्यसमाजियों की दाल गल गयी। सबके कुछ क्लिष्ट-अक्लिष्ट उपयोग होते हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से शकाहार का ही पक्षधर हूँ। नारायण!

Watch video here ( forward 9:15 minutes ) - https://youtu.be/H4yj-lA5_-8 


1.  खराब ऑडियो क्वालिटी के कारण राजस्थान के उन सन्त श्रीरामचन्द्र जी महाराज का पूरा नाम सही नहीं सुनाई दिया। 



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