प्रश्न - भगवान् अच्छे लोगों को कष्ट क्यों देते हैं? :-
उत्तर - आपके अनुसार जिन्हें कष्ट मिलता है, उनसे कहिये कि आप भगवान् को न मानकर सुख प्राप्त करो। वो राजी होंगे? प्रह्लाद जी को बड़ा कष्ट मिला। और जिसने कष्ट दिया वह हिरण्यकशिपु पिता, उसको तो कोई कष्ट नहीं था, जब मारा गया तब मारा गया… प्रह्लाद जी को यदि कोई कहता कि धर्म के मार्ग पर, ईश्वर के मार्ग पर जो तुम चलते हो, तुमको कष्ट मिलता है, तुम सुख प्राप्त करने के लिए, मौज-मस्तीपूर्वक जीवन यापन के लिए धर्म और ईश्वर के मार्ग पर चलना बन्द कर दो, तो प्रह्लाद जी मानते क्या? जिसको आप कष्ट कहते हैं वह तप होता है। काला-कलूटा लोहा जब अग्नि के सम्पर्क में आता है तो दाहक, प्रकाशक बनता है। अगर गर्मी को व्यापने न दे लोहा तो दाहक बनेगा क्या? आग को यदि अपने में व्यापने न दे लोहा तो दाहक-प्रकाशक बनेगा? नहीं न। कोठी पर रखे हुए बीज को भी धूप में, सूर्य के प्रकाश में फैलाते हैं। तो उसको ताप का अनुभव होता है या नहीं? बीज को तप्त बनाते हैं तब उसमें अङ्कुर देने की क्षमता पर परिपुष्ट रहती है। इसलिए मनुस्मृति में लिखा है - जो धर्म-कर्म को छोड़कर केवल भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए आगे बढ़ते हैं, अत्याचार-अन्याय करते हैं, वो लूटपाट के द्वारा खूब धन कमा लेते हैं। लाठी-गोली, बम-बारूद के बल पर शत्रुओं को नीचा भी दिखा देते हैं। लेकिन बाद में समूल नाश उनका होता है। 'एक लख पूत सवा लाख नाती तेहि रावण घर दिया न बाती'। अन्त में क्या हुआ रावण का? हिरण्यकशिपु का अन्त में क्या हुआ? दुर्योधन का अन्त में क्या हुआ? कंस का अन्त में क्या हुआ? इसीलिये सत्यमेव जयते नानृतं। यह जो यातना हम समझते हैं यातना नहीं है।
भगवान् के भक्त चार प्रकार के होते हैं - आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी। गीता के सातवें अध्याय में….।
आर्त का अर्थ है कि संकट से घिरे हों और संकट से मुक्ति प्राप्त करना चाहते हों तो संकट से मुक्ति प्राप्त करने की भावना से भगवान् का भजन करते हों, वे कष्ट से मुक्त हो जाते हैं, यह भगवान का अनुग्रह है।
अर्थार्थी - रिद्धि-सिद्धि, धन-वैभव प्राप्त करने के लिए भगवान् का भजन करते हों। ध्रुव जी राज्य प्राप्त करने की भावना से चले थे। गजेन्द्र संकट में थे, भगवान् को पुकारा तो उनके कष्ट का निवारण हुआ।
अब जो भगवान् की प्राप्ति के लिए ही भगवान् के मार्ग पर चलते हैं, जिनपर भगवान् विशेष अनुग्रह करते हैं उनके लिए क्या लिखा है - यस्याहं अनुगृह्णामि…. जिस पर मैं विशेष अनुग्रह करता हूँ, वैराग्य के अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न कर देता हूँ।
कृपा में भेद है। कक्षा की पढ़ाई में भेद है न? स्तर का भेद। प्राइमरी का व्यक्ति भी 1, 2, 3, 4, 0….. इसी से खेलता है गणित में, M.Sc. में भी अगर जायेगा तो अङ्क तो यही रहेंगे लेकिन स्तर कितना बढ़ जाएगा गणित का!
आर्त की आरति (वेदना) की निवृत्ति, यह भक्ति का प्रारम्भिक फल है। अर्थार्थी को सम्पत्ति प्राप्त हो जाये, यह भजन का प्रारम्भिक फल है। लेकिन भगवान् जिस पर विशेष अनुग्रह करते हैं उसके लिये लिखा है... सम्पत्ति का अपहरण कर लेते हैं।
धन के कारण ही तो सब ऐश-आराम, इधर उधर होता है काम। अगर वह बार-बार धन की प्राप्ति के लिए उद्यम करता है और उचित प्रयास करता है तो फिर असफलता, असफलता, असफलता…..। फिर भगवान् क्या करते हैं? कुल-कुटुम्ब में संघर्ष करा देते हैं झगड़ा (कलह) उत्पन्न कर देते हैं। फिर भी व्यक्ति चेतता नहीं है तो शरीर में रोग उत्पन्न कर देते हैं। सबका सार क्या निकला? वैराग्य के अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न कर देते हैं। आसक्ति की जितनी घाटियाँ हैं उन सब पर पानी फेर देते हैं। यह भगवान् का अनुग्रह है या कोप? धर्म का असली फल क्या है - धर्म ते विरति योग ते ज्ञाना ज्ञान मोक्षपद वेद बखाना.. धर्म का असली फल है वैराग्य। वैराग्य न होने के कारण ही तो जन्म का अन्त मृत्यु, मृत्यु का अन्त जन्म होता है। जन्म और मृत्यु की अनादि-अजस्र परम्परा का आत्यन्तिक उच्छेद धर्मानुष्ठान से सम्भव है। तो अलग-अलग अनुकम्पा है भगवान् की। एक ही जैसी अनुकम्पा नहीं है। माँ जब लाड-प्यार करती है बच्चे को, चूमती है तो वह भी कृपा है। और कोई चपत लगा देती है बच्चे को तो कोप है क्या? वह कोप भी कृपा है या नहीं? चपत लगा दे माँ तो यह क्या कृपा नहीं है? कृपा के ही दोनों रूप हैं।
अब मैं अपना उदाहरण देता हूँ। बहुत उथला उदाहरण। दिल्ली में मैं था। कमरे रहने के लिये नीचे थे लेकिन और लोग रहते थे। मैं बरसाती में सबसे ऊपर रहता था। ठण्डी भी बहुत लगती थी। मेरे पास कोई आता-जाता भी नहीं था। सहपाठी भी मुझे बहुत सम्मान देते थे। अध्यापक भी मुझे बहुत स्नेह देते थे, सम्मान देते थे। कोर्स की पुस्तकों के अतिरिक्त केवल एक गीता का गुटका मेरे पास होता था, गीताप्रेस से प्रकाशित। छःमाही (अर्द्धवार्षिक), वार्षिक परीक्षा के पन्द्रह-बीस दिन पहले, दो-तीन साल तक यह क्रम चला, पुस्तकें सब लुप्त हो जातीं। ऐसा नहीं है कोई चुरा कर ले जाये, सब गायब हो जाती थीं। अब कहाँ से कितनी बार पुस्तकें खरीदें? और परीक्षा देकर आता तो आँखों के सामने वो सारी पुस्तकें प्रकट हो जाती थीं। कोई भूत-प्रेत नहीं लगा था। यह खेल लगभग 2 साल चला। तो हमने समझ लिया भगवान् का संकेत क्या है…. अब तुम दूसरी पढ़ाई की और चलो, यह पढ़ाई पूरी हो गई। समझ गये? तो वह क्या मैं भगवान् का कोप समझता? या भूत प्रेत लगा था कोई? न चोर लगा था न भूत-प्रेत। तो भगवान् जिसको अपनी ओर तीव्र गति से खींचना चाहते हैं, अपना ज्ञान, अपनी भक्ति देना चाहते हैं उन पर भगवान् का अनुग्रह और ढंग से बरसता है। मिलिट्री, पुलिस का जो प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं न, पसीने-पसीने हो जाते हैं। लेफ्ट, राइट, ऊपर, नीचे…. पसीने-पसीने हो जाते हैं या नहीं? वे प्रशिक्षण के दिन उनके लिये संकट के दिन होते हैं, कष्ट के दिन होते हैं। इसलिये गीता में लिखा है - अग्रेऽमृतोपमम् परिणामे विषमिव….
खुजली है, विषय-वासना है, आरम्भ में अमृत के समान, परिणाम में दुःख। और व्यायाम है, विद्याध्ययन है, संयम है पहले विष के समान लगता है अन्त में अमृत के समान। मुझे इस जीवन में जितना कष्ट मिला अगर वह न मिला होता तो आज मैं शङ्कराचार्य के पद पर प्रतिष्ठित होकर शङ्कराचार्य के दायित्व का निर्वाह नहीं करता। करोड़ों नहीं अरबों रुपये से खेलने का अवसर शङ्कराचार्य को मिलता है, समझ गये? अरबों रुपये से। मैं आप लोगों से कुछ माँग नहीं रहा लेकिन मठ चलाना भी मेरे लिये बहुत कठिन सा है तो अगर मुझे वो सब यातना न मिली होती, उतनी कष्ट की, कष्ट की उतनी घाटियाँ पार करके नहीं आता तो मैं भी शङ्कराचार्य के पद का उपयोग सरकार को अनुकूल करके अरबों रुपये से खेलने में करता। समझ गये? इसलिये जितनी यातना मिली, जितना कष्ट मिला वो सबको मैं वरदान समझता हूँ।
मुझे कोई कह दे - 'बोटी-बोटी उड़ा दूँगा, देशभक्ति की बात, राष्ट्र की बात मत करो'।
मैं कहूँगा - 'बोटी-बोटी उड़ा दो, मैं किये बिना नहीं रह सकता। '
तो धर्म और ईश्वर के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को, जिसको हम यातना कहते हैं कष्ट कहते हैं, इतना आनन्द आता है उस आनन्द को छोड़कर वह रह नहीं सकता।
और संकेत कर देते हैं - रबड़ी, मालपुआ, कचौरी खाने वालों का इतिहास बनता है? महाराणा प्रताप के परिवार को घास की रोटी नहीं सुलभ थी। मानसिंह का इतिहास बना या महाराणा प्रताप का? धर्म का अर्थ है तपाना - देह, इन्द्रिय, प्राण, अन्तःकरण को तप्त करना धर्म है न ! चमेली के तेल से मालिश करना धर्म है क्या? हमने कहा महाराणा प्रताप का इतिहास बना या मानसिंह का इतिहास बना। महाराणा प्रताप का इतिहास बना न जिनके परिवार को घास की रोटी सुलभ नहीं थी! तो हमने संकेत किया, जिसको हम कष्ट समझते हैं, ताप समझते हैं, विपत्ति समझते हैं, वह सचमुच में तप है। वो आगे उठने के लिये… यह जो मन में जन्म-जन्मान्तरों के कालुष्य हैं, कलुषित भाव हैं, उनको तप्त किये बिना…. जैसे बच्चा होता है, माँ रगड़ के नहलाती है, वह चिढ़ जाता है, लेकिन मैल छूटता है न रगड़ के नहाने से? इसी प्रकार से देह, इन्द्रिय, प्राण, अन्तःकरण का शोधन तपस्या के द्वारा होता है। प्रतिकूल परिस्थिति में देह, इन्द्रिय, प्राण, अन्तःकरण का शोधन होता है। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः - मनुस्मृति का कहना है। तो देह, इन्द्रिय, प्राण, अन्तःकरण में जो मलिनता है उसको दूर करने के लिये.. एक बर्तन में कालिमा लगी है मल है उसको फिर क्या करते हैं? फिर नारियल की रस्सी से जोर-जोर से मलते हैं। तब जाकर वो क्या होता है? कालिमा मिटती है या नहीं? इसी प्रकार से देह, इन्द्रिय, प्राण, अन्तःकरण के शोधन के लिये जितना तप्त जीवन चाहिये, ताप चाहिये, उतना ताप भगवान् धर्म के मार्ग पर चलने वालों को देते हैं। वह विषाद नहीं है प्रसाद है।
दूसरी बात और...मनोविज्ञान की बात - विपरीत परिस्थिति में ही निष्ठा की अभिव्यक्ति होती है। यह दार्शनिक वाक्य मैंने कहा। कोई व्यक्ति अहिंसक है और सब हाथ जोड़ने वाले हैं तो उसकी अहिंसा की प्रतिष्ठा व्यक्त होगी क्या? लेकिन हिंसकों के बीच में रहकर भी 'इन्हें मार डालूँ' ऐसा भाव, हिंसा का भाव नहीं उदित होता तब मानना पड़ेगा कि इस व्यक्ति के जीवन में अहिंसा की प्रतिष्ठा है। जो दैवीय सम्पत्ति है उसकी अभिव्यक्ति… हम कितने पानी में हैं…ये सामने वाले कितने पानी में हैं.. इसकी कसौटी क्या है? विपरीत परिस्थिति। विपरीत परिस्थिति में ही निष्ठा उत्पन्न होती है।
एक वृन्दावन में थे बाबा, और एक थे गृहस्थ। गृहस्थ जो थे उन्होंने वेदान्त की पंक्तियाँ रट लीं थीं। जो कहे, 'बस आनन्द ही आनन्द है, मैं ब्रह्म हूँ, सच्चिदानन्द हूँ'। सच्ची घटना है। एक बार वो भयङकर बीमार पड़े। तो
एक सिद्ध महात्मा थे, उन्होंने सोचा कि उनको क्या समझाना है, दूसरों को कहते हैं, 'संसार मिथ्या है, आत्मा ब्रह्म है' लेकिन अबतक की हालत में... तो जाकर कुशल मङ्गल तो पूछ लूँ। तो वे गये। उन्होंने कहा - आपको क्या समझाना है, आप तो शुद्ध, बुद्ध, ब्रह्म हैं ही, आप तो दूसरों को समझाते हैं। तो उन गृहस्थ ने कहा, (जो बीमार पड़े थे) - 'ब्रह्म जाये भाड़ में, मैं मर रहा हूँ। क्या कहते हो बाबाजी!' तो चुपके से वह बाबाजी चले आये। हो गया न! जो रोग की दशा में ब्रह्म भूल गये, कहने लगे ब्रह्म जाये भाड़ में, तो कौन सी ब्रह्मनिष्ठा हुई? तो हमने कहा विपरीत परिस्थिति में, झूठ बोल कर के सम्पत्ति की रक्षा की जा सकती थी, राजा बलि…. गुरु जी ने कह दिया- यह छलिया है, विष्णु है, इसने जिस पग से धरती माँगी, अब विशाल पग बना चुका है। मुकर जाओ। धन की रक्षा के लिए समय आने पर मुकर जाना भी उचित है। उन्होंने कहा, गुरु जी ने, वेद ऐसा कहते हैं।
शिष्य ऐसे निकले… कौन? राजा बलि.. उन्होंने कहा - वचन दे दिया तो दे दिया, मुकर नहीं सकता।
तो हमने क्या कहा? विपरीत परिस्थिति में ही दैवीय सम्पद, धर्म और ईश्वर के प्रति हमारी आस्था प्रकट होती है। लक्ष्मण जी के जीवन में राम जी के लिये जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा… सबको न्योछावर करने की क्षमता थी। अगर रामजी वनवासी न होते तो, अयोध्या में, लक्ष्मण जी के जीवन में जो राम जी के लिये सर्वस्व त्याग करने की क्षमता थी वह प्रकट हो पाती क्या? नहीं न ! तो विपरीत परिस्थिति में ही तो निष्ठा व्यक्त होती है न? लोग उसको विपत्ति मान लेते हैं। जो जीवन में चोरी करके लाखों कमा सकते हैं, धन लेने का पूरा अवसर प्राप्त है फिर भी चोरी की भावना नहीं होती तब माना जायेगा न? तो विपरीत परिस्थिति में ही निष्ठा व्यक्त होती है। कौन कितने पानी में है इसकी परीक्षा तो विपरीत परिस्थिति में होती है। अतः विपरीत परिस्थिति भी हमारे जीवन के लिये कसौटी का काम करती है।
अच्छा, 12 वर्ष वनवास, 1 वर्ष अज्ञातवास पाण्डवों को नहीं मिलता तो क्या एक लाख श्लोकों का महाभारत उनके नाम पर लिखा जाता? चार-पाँच पंक्तियों में युधिष्ठिर जी का या पाण्डवों का चरित्र पूरा आ जाता या नहीं? चार-पाँच पंक्तियों में। लेकिन जंगल में, वन में ही जन्म हुआ उनका। छोटी आयु के थे तब पिताजी चल पड़े.एक माता सती हो गईं, माद्री। कुंती ने दुःखपूर्वक जीवन व्यतीत किया। लाक्षागृह कांड, बारहवर्ष तक वनवास, एक वर्ष तक अज्ञातवास…. इतना... जन्म से लेकर अज्ञातवास तक की अवधि। फिर युद्ध ही क्यों होता? तो महाभारत युद्ध तक की अवधि जो हुई, इतना इतिहास दुःख के इतिहास हैं या नहीं? इनको आप हटा दीजिये तो पाण्डवों का चरित्र कितनी पंक्ति में होता जी? एक लाख श्लोकों में होता? पाँच-सात पंक्ति में। और आपको सनातन धर्म का हम रहस्य बताते हैं। राम जी ने जो राज्य दिया उसके समान कौन राज्य होगा? रामराज्य। वाल्मीकि रामायण उठाकर देख लीजिये, तुलसीदास जी का रामायण उठाकर देख लीजिये, रामराज्य का वर्णन कितने सौ पंक्तियों में है? कितनी पंक्तियों में है? कितने पृष्ठों में हैं? 40-50 से अधिक नहीं मिलेगा। जबकि सबसे बढ़िया राज्य। रामराज्य, राजगद्दी पर आरूढ़ हुए राम, शासन किया, उनके राज्य की दिव्यता का वर्णन भी, 25-50 श्लोक में सही, सैंकड़ों श्लोकों में नहीं है। लेकिन वनवास की जो गाथा है... पृष्ठ के पृष्ठ, काण्ड के काण्ड भरे हैं या नहीं? तो आप देखिये युधिष्ठिर जी ने शासन किया.. लगभग 36 वर्षों तक उसका इतिहास 36 पंक्ति में नहीं, महाभारत देख लीजिये। लेकिन जन्म से लेकर महाभारत युद्ध तक की गाथा हजारों श्लोकों में। इसका अर्थ क्या होता है? हमारे इतिहासकार कहाँ हमको ले जाना चाहते हैं? राम जी के राज्य का वर्णन हज़ारों पंक्तियों में होना चाहिये था न, लेकिन गिने-चुने शब्दों में प्राप्त होता है। इसलिये हमारे इतिहासकार हमको भोगी नहीं बनाते।
अब क्या है, मुख्य नेता जबसे हो गये, मंत्री हो गये, तब से जीवन चरित्र विस्तृत हो जाता है। और जेल गये वगैरह, यह सब जीवन चरित्र दो पंक्ति में होता है। अब कोई जेल जाता भी नहीं प्रायः। अब तो भोग भोगने के लिये राजनीति में प्रवेश करते हैं। इन राजनेताओं का क्या है? कोई महत्व है क्या? उन राजनेताओं का महत्व था.. सबसे ऊँचे जो राजनेता थे, वो राज्य ही नहीं कर पाये। फांसी के तख्ते पर झूम गये। समझ गये? बलिदानी हो गये। सबसे ऊँचे जो राजनेता थे वो तो राज्य ही नहीं कर पाये। विपत्ति में ही.. फांसी के फंदे पर झूल गये...राजगुरु… ये सब। नंबर दो के जो नेता थे, नंबर तीन के वो राज्य कर पाये लेकिन पहले उन्होंने देश भक्ति के लिये कष्ट सहा। अब जो राजनेता हो रहे हैं वो तो एम.एल.ए, एम.पी अरबों रुपये से खेलने के लिये हो रहे हैं। भोग से कर्षित होकर, भोग्य पदार्थों से कर्षित होकर राजनीति में घुसा जा रहा है या राष्ट्र को समुन्नत करने के लिये? इन राजनेताओं का जीवन चरित्र, मच्छर के जीवन चरित्र लिखे जाते हैं क्या? मच्छर के जीवन चरित्र लिखे जाते हैं क्या? मलेरिया फैलाने वाले हैं… बस इतना ही न ! उन राजनेताओं की क्या दिनचर्या है? भोग भोगने के लिए ही वो पार्षद से लेकर और वहाँ तक जाते हैं, समझ गये? उनकी कोई राजनीती में.. उनकी छवि… उनका इतिहास कोई इतिहास बनता है क्या? इसलिये इतिहास उन्हीं का बनता है जो धर्म के मार्ग पर तिल-तिल कर... यह जो मोमबत्ती जलती है, बत्ती जलती है तब तो प्रकाश देती है न! बत्ती ना जले तो क्या प्रकाश दे सके? तो अपने जीवन को प्रकाशित करने के लिये, विश्व को प्रकाशित करने के लिये धर्मात्मा तिल-तिल अपने जीवन को गलाते हैं। वह उनका तप है। उसमें भी उनको आह्लाद मिलता है।
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